परिस्थिति
कथा साहित्य | लघुकथा महेश कुमार केशरी15 Oct 2022 (अंक: 215, द्वितीय, 2022 में प्रकाशित)
मिस्टर दुबे के आवभगत से पूरा तिवारी परिवार गद्गद् था। मिस्टर दुबे और मिस्टर तिवारी दोनों समधी बनने जा रहे थे। खाने-खिलाने का दौर जारी था। हँसी-क़हक़हे जारी थे, लेकिन, मिसेज दुबे पुराने ख़्यालातों की थीं। रूढ़िग्रस्त महिला। उनको इस रिश्ते में जाति को लेकर ही एतराज़ था, और सब बातें तो सब ठीक-ठाक थीं। उन्होंने अपने पति मिस्टर दुबे को एक बार फिर, कोहनी मारकर इशारा किया। ऐसे इशारे देखकर तिवारी जी ने मज़ाक में मिस्टर दुबे को झिड़की दी, “अरे भाई आपकी होम मिनिस्टर कुछ कहना चाहतीं हैं, जाइये जाकर सुन भी आईये।”
हालांँकि, मन में मिस्टर दुबे को अपनी श्रीमती जी की ये हरकत बहुत ही बुरी लगी, लेकिन, प्रत्यक्ष में वो हँसते हुए बोले, “तिवारी जी आप बैठिये . . . हम लोग . . . अभी तुरंत हाज़िर होते हैं।”
सोफ़े से उठकर, वे लोग बग़ल वाले कमरे में चले गये।
मिसेज दुबे, मिस्टर दुबे को खा जाने वाली नज़रों से घूरते हुए बोलीं, “ये भी क्या कोई बराबरी का रिश्ता है, हमारे जाति और गोत्र में और उनके जाति और गोत्र में बहुत ही अंतर है। वो तिवारी कंटाहा बाह्मण हैं, शोक-भोज में खाने वाले और हम . . . लोग कुलीन बाह्मण!”
मिसेज दुबे इसके आगे कुछ कह पातीं, तभी उनके पति मिस्टर दुबे ने, उनको बीच में ही टोका दिया, “तुम केवल जाति देख रही हो, लेकिन ये नहीं देख रही हो कि लड़का सी.ए. है। दो लाख रुपये महीना कमाता है। तिवारी जी तो बीस लाख रुपये के दहेज़ में ही मान गये। किसी सजातीय के पास जाकर देखो अगर लड़का सी.ए. हुआ तो कम-से-कम पचास लाख रुपये मांँगेगा। तुम हो किस फेर में। उस वक़्त तुम्हारे दिमाग़ की सारी गर्मी उतर जायेगी, इसलिए जैसा मैं कहता हूँ। तुम वैसा ही करो।”
दुबे जी के डपटे जाने के बाद मिसेज दुबे धीरे-धीरे चलकर वापस फिर, से सोफ़े पर आकर बैठ गईं।
. . . तिवारी जी को परिस्थिति कुछ-कुछ समझ में आ गई थी। वो काजू की बर्फ़ी अपने मुंँह में रखते हुए बोले, “देखिए ना दुबे जी हमारी मिसेज कितनी गोरी-चिट्टी और ख़ूबसूरत हैं। मैं इनके मुक़ाबले में कहीं नहीं ठहरता। हमारे समय में तिलक-दहेज़ का चलन उतना नहीं था। हमारी मिसेज के परिवार वाले उतने पैसे वाले लोग भी नहीं थे। मजबूरी में इनकी और हमारी शादी हो गई। इनकी माताजी को भी मैं पसंद नहीं था, इसलिए मैं कहता हूँ। शादी, लोगों के बीच नहीं, होती, बल्कि परिस्थितियों के बीच होती है।”
और, दुबे जी ने तिवारी जी को हल्की चपत लगाई, और बोले, “आप ठीक कहते हैं समधी जी।”
और . . . दोनों समधी क़हक़हे लगाकर हँस पडे़।
अन्य संबंधित लेख/रचनाएं
टिप्पणियाँ
कृपया टिप्पणी दें
लेखक की अन्य कृतियाँ
कविता
- इंतज़ार में है गली!
- इसी देश में कहीं
- ईश्वर की प्रार्थना में अगरबत्तियाँ
- ओस
- कील-2
- कुदाल
- जनवरी की रात
- जल
- तबसे आदमी भी पेड़़ होना चाहता है!
- ताप
- ताले में बंद दुनिया
- तुम बीज बनकर लौटना
- दुःख बुनना चाहिए . . .
- पहचान का संकट . . .
- पहाड़ और दुःख
- पिता और पेड़
- पिता के हाथ की रेखाएँ
- पिता दु:ख को समझते थे!
- पीठ पर बेटियांँ . . .
- बेहतर बहुत बेहतर . . .
- मिट्टी
- मज़दूरी
- ये सदी का मरना है
- सूखा
- सूरज
- हवा
कहानी
लघुकथा
हास्य-व्यंग्य आलेख-कहानी
विडियो
उपलब्ध नहीं
ऑडियो
उपलब्ध नहीं