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धूप के रेशे मुलायम हैं

 

“बाबा मैं, तुम्हारी तरह ऐसे ही मज़बूत कट्टे बनाऊँगा। जैसे तुम बनाते हो। जैसे तुम्हारे बनाये कट्टे फ़ायर करते समय नहीं फटते। ठीक ऐसे ही कट्टे मैं भी बनाऊँगा बाबा। बिल्कुल तुम्हारी तरह तुम्हारे बाद!” 

करमजीत कार के स्टेयरिंग वाले पाईप को काटकर तराशते हुए अपने बाप गुलाब सिंह की तरफ़ देखते हुए बोला। 

हालाँकि, गुलाब सिंह, करमजीत के सामने ही कट्टे बनाने का काम करता है। लेकिन, उसका लड़का बड़ा होकर कट्टे बनायेगा—उसके बाद उसकी तरह। ये बात सुनकर गुलाब सिंह के कान खड़े हो गये थे। उसके सीने में लगा जैसे किसी ने बर्छा मार दिया हो। ये बात इस छोटे से मात्र तेरह साल के लड़के के मुँह से सुनकर उसे बेहद अचरज हुआ था। लेकिन वो सोच रहा था कि आख़िर करमजीत भी कट्टा बनायेगा। उसको भी पुलिस दबिश देकर खोजेगी? उसे भी जंगलों में महीनों रहकर रातें बीतानी पड़ेंगी। पाईप मोड़ते-मोड़ते उसके हाथ वहीं कहीं जम गये। कब से कट्टा बना रहा है, वो। 

यादों के धुँधलके में कहीं वो गहरे उतरता जाता है। पैतनपुर गाँव जहाँ उसका जन्म हुआ था। बचपन से ही वो इस माहौल में पला-बढ़ा। उसके पिताजी भी कट्टे ही बनाते थे। कोई तीन-चार सौ लोग रहते हैं उस गाँव में। सबका यही व्यवसाय है। कट्टा बनाने का। लीगल तरीक़े से यहाँ कुछ नहीं होता। सब कुछ पर्दे के पीछे से होता है। बहुत कम मेहनत और बहुत कम लागत में बन जाता है, कट्टा। फिर, इसे बाहर ले जाकर बेचने का भी टेंशन नहीं है। दूर-दराज़ के अपराधी क़िस्म के लोग अपनी सुविधा के अनुसार उससे कट्टे ख़रीदकर ले जाते हैं। 

ख़ासकर, छोटे-मोटे दूर-दराज़ के इलाक़ों में इसकी बहुत डिमांड रहती है। और चुनाव के समय तो इन देशी कट्टों की माँग बहुत बढ़ जाती है। नेता लोग भी अपने गुर्गों की मदद से यहाँ इस गाँव से माल ले जाते हैं। चुनावों में दबिश देने के लिये। बूथ कैप्चरिंग के लिये। लेकिन, पैतनपुर से इन नेताओें का केवल चुनाव तक ही नाता रहता है। चुनाव के बाद वो इधर झाँकते भी नहीं। इस कट्टे वाले धँधे में एक तो युवाओं में ख़ासा जनून दिखता है। इतना जनून की, पूछो ही मत? एक किशोरावस्था की बनैली क्रूरता उनके आँखों में दिखाई देती है। जिसे देखकर वो डर जाता है। एक ऐसा जनून जिसे उसने करमजीत के आँखों में अभी-अभी देखा है।

एक ऐसा जनून जिसका इस्तेमाल वहाँ के नेता इन युवाओं और किशोरों का कार के स्टेयरिंग वाले पाईप की तरह कट्टा बनाने में करते हैं। हाथ युवाओं का जलता है। और ये नेता युवाओें को एक सपना दिखाकर उसमें अपना हाथ सेंकते हैं। एक क्रूर हिंसक सपना। ऐसा सपना जो कभी पूरा नहीं हो सकता। नशाखोरी और हिंसा ने इस पैतनपुर को अपनी गिरफ़्त में ऐसे कसा है, जैसे अजगर, आदमी को अपने जबड़े में कसता है। 

गुलाब सिंह को लगा कि उसके बेटे करमजीत को भी कोई बहका रहा है। कोई ऐसा सब्ज़-बाग़़ दिखा रहा है। जिसमें करमजीत कल को उस क्षेत्र का कोई रसूख़दार आदमी बन जायेगा। या कोई भाई-वाई टाइप का आदमी! लेकिन, करमजीत एक कट्टे बनाने वाले का बेटा है। उसको कोई कैसे सब्ज़-बाग़ दिखा सकता है? लेकिन हो भी तो सकता है। आख़िर, छोटे-छोटे बच्चे ही तो अपराधियों के साॅफ़्ट-टारगेट होते हैं। बिल्कुल कार के पाईप की तरह। जिनसे कट्टा बनता है। लचीले और नाज़ुक! 

उन्हें केवल तपाना भर होता है। फिर, अपने हथौड़े से ठोंक-पीटकर मन चाहा आकार ले लो। आख़िर जिन राज्यों में शराब बैन है, वहाँ के अपराधी, बच्चों का सहारा लेकर ही तो शराब एक जगह से दूसरे जगह तस्करी करते हैं। पुराना माड्यूल बदल गया। आजकल पुलिस भी तो इन तस्करों और अपराधियों की सारी टेक्नीक समझ गयी है। फिर थोड़े से पैसों के लालच में ये युवा भटक जाते हैं। ये वही समय होता है। जब ये बच्चे हाथ से बेहाथ हो जाते हैं। आज कल जो स्मगलरी होती है। उसमें इन युवाओं को ही तो टारगेट किया जाता है। नशा करने वाला भी युवा। नशा बेचने और ख़रीदने वाले भी युवा। फिर आज कल तो वेब-सीरीज़ का जमाना है। उसने नेट-फ़्लिक्स पर कुछ वेब-सीरीज़ देखीं हैं। गालियों से नहाते संवाद। फूहड़ पटकथा और घटिया संवाद। बात-बात में गाली-गलौज। छोटी-छोटी बात पर ठाँय से पिस्तौल चलती है। और आदमी ढेर हो जाता है। बँदूक का साम्राज्य। हर तरफ़ दिखाई देता है। फिर इस देश में ऐसी फ़िल्में क्यों  बन रहीं हैं। और, अगर बन रहीं हैं तो, फिर सेंसर बोर्ड का अब क्या काम बचा है? पता नहीं चलता। फ़िल्मों में अब संवाद और नायक केवल बँदूक से बात करता है। और उसकी बात सुनी भी जा रही है। ठेका नहीं मिलता है। तो बँदूक चल जाती है। सामाजिक दायरा कितना विकृत होकर सामने आ रहा है। इन फ़िल्मों में। एक ही औरत के तीन-तीन लोगों से सम्बन्ध हैं। ससुर से भी, पति से भी, और बेटे से भी! सामाजिक सम्बन्धों की बखिया उधेड़ती आज की ऐसी वेब सीरीज़ें युवाओं के अंदर एक ज़हर भर रहीं हैं। फिर आज का युवा भी तो इन चीज़ों से बहुत इंस्पायर हो रहा है। और, इन वेब-सीरीज़ों में सबसे बड़ी चीज़ जो दिखाई जा रही है। उसमें इन दबंगों को राजनीतिक तौर पर भी सत्ता का संरक्षण प्राप्त है। 

बात-बात में गाली-गलौज। छोटे-बड़े को तरजीह ना देना। समाज का पूरा-ताना बाना बिखर गया है। इन वेब सीरीज़ों से। इन वेब-सीरीज़ों को देखकर ही तो युवा ड्रग्स ले रहे हैं। जैसे किसी फ़िल्म में टुन्ना भईया को ड्रग्स लेते दिखाया गया है। और सबसे ज़्यादा ख़राब बात इन वेब-सीरीज़ों में नायक का खलनायक हो जाना है। किसी भी राह चलती लड़की का दुप्पटा खींच लिया जाना। उसे सरेआम छेड़ा जाना। उसका सामूहिक बलात्कार। और नायक के रूप मे़ आज का युवा अपने आपको टुन्ना की जगह पाता है। बहुत ख़ुश है। आज का युवा अपने आपको उस खलनायक के रूप में देखकर। उसे टुन्ना भईया की तरह का बोस बनना है। पूरा ज़िला उसका है।

उसके पास पॉवर है। तो वो सब-कुछ हासिल कर सकता है। यहाँ नायक किसी अपने पर भी विश्वास नहीं करता। बस उसे गद्दी चाहिए। चाहे जैसे मिले। बाप को मारकर भी।

गिलास के गिरने की आवाज़ से गुलाब सिंह की तंद्रा टूट गई। उसने हो-हो की आवाज़ दी। लेकिन बिल्ली नहीं भागी। ढीठ की तरह खड़ी है, अब भी खिड़की पर। वो उठकर खिड़की तक गया। इस बार बिल्ली भाग गई। सामने गुरविंदर को देखकर वो चौंक जाता है। वो किसी लड़के से खड़ा होकर हँस-हँस कर बातें कर रहा है। उसके हाथ में एक पैकेट है। काले रँग की पाॅलीथीन। उसका दिल फिर से बैठने लगता है। गुरविंदर, उसके सगे भाई लखविंदर का बेटा है। वो पिछले साल जेल से होकर आया है। ड्रग्स बेचने के आरोप में। उस पर खालिस्तानी होने का आरोप भी लगा था। पाकिस्तानियों और आतंकवादियों से उसके सम्बन्ध हैं। ऐसी चर्चा मुहल्ले में हो रही थी। पुलिस कह रही थी। बाहर देश से ये जो अफ़ीम, कोकिन और हीरोईन आती है। वो हमारे दुश्मन मुल्क पाकिस्तान से आती है। ठीक है। ये बात भी समझ आती है। गुविंदर के साथ एक और लड़का पकड़ा गया था। वो, माजीद था। एक पाकिस्तनी लड़का। पेशावर से था शायद, माजीद। जैसा कि गुरविंदर बता रहा था। उम्र कोई बीस-बाईस साल थी। उसका बाप कसाई था, रहमत शेख़। दो-दो शादियाँ कर रखीं थी उसके बाप ने। वो उसकी सगी माँ को बहुत मारता-पीटता था। उसके आठ-आठ भाई बहन थे। किसी तरह उसने सातवीं पास की। उसका बाप पाकिस्तान में एक बार इमरान खान की तहरीर सुनने गया था। फिर उसी रैली में गोली लगने के कारण उसका बाप मर गया था। एक तो छोटी उम्र। फिर, आठ-आठ लोगों की ज़िम्मेदारियाँ सिर पर। एक अकेला माजीद भला अकेले क्या-क्या करता? लोग महँगाई से उस देश में पहले ही बदहाल थे। साग-सब्ज़ी ख़रीदने के पैसे तो पास में होते नहीं थे। गोश्त कौन ख़रीदता? ऐसा नहीं था कि माजीद बेवकूफ़ था। वो अख़बार पढ़ता था। चीज़ों को समझता था। उसने अख़बारों में ही पढ़ा था। कि कुछ सालों पहले देश के पूर्व प्रधानमंत्री जिन पर भ्रष्टाचार के गंभीर मामले थे। वो देश छोड़कर अभी लंदन में रह रहा है। और अब अपने मुल्क में इमरान खान के अपदस्थ होते ही वापसी की तैयारी में है। चुनाव नज़दीक आ रहें हैं, वहाँ। ऐसा तो उसके ख़ुद के देश में भी हो रहा है। यहाँ के नामचीन भगौड़े बैंकों का पैसा लेकर लंदन, यू.के., अमेरिका, यूरोप में बिज़नेस को सेटल कर रहे हैं। आख़िर जो दूसरे मुल्क में हो रहा है। वो तो उसके देश में भी हो रहा है। पड़ौसी देश का पूर्व भगोड़ा या देश निकाला प्रधानमंत्री सोने की थाली में बैठकर मेवों का आनंद ले रहा है। वो जो एक भ्रष्टाचारी है। माजीद जैसे लाखों लोग जो मेहनत करते हैं। सरकार को टैक्स भरते हैं। उनके टैक्स के पैसों से ही ये सरकारें भ्रष्टाचार करती हैं। बड़ी-बड़ी गाड़ियों में घूमती हैं। फाॅरेन देशों में हवाई यात्रायें करती हैं। बावजूद इसके कि वो सफ़ेदपोश हैं। और माजीद जैसे लोग जरायमपेशा! क्या जो लोग हथियार, या ड्रग्स बेचते हैं, वो इक्के-दुक्के लोग हैं। सारे काम इन सफ़ेदपोश और बड़े लोगों की इच्छा-शक्ति और सत्ता के संरक्षण के बिना आख़िर कैसे हो सकता है? इसको ऐसे समझना चाहिए कि हमारे देश के उन हिस्सों में जहाँ शराब बैन है; वहाँ शराब बिकती है। स्थानीय थाने को सेट कर लिया जाता है। आबकारी को उनका हिस्सा जाता है। इसका एक बड़ा नेटवर्क है। सियासतदानों से लेकर अफ़सरशाह तक सब के सब बिके होते हैं। तभी इतनी तादाद में शराब बनती और बिकती है। कभी जनता की आँखों में धूल झोंकने के लिये दीपावली और दशहरे में दुकानों में दबिश दी जाती है। छोटे-छोटे पाॅलीथीन और ताड़ी बेचने वालों को पकड़कर जेल में बंद कर दिया जाता है। अख़बार का काॅलम भरने के लिये। कमीशन खाने वाला अधिकारी ही अपने ज़िले के अफ़सरों को डाँटता-फटकारता है। साल में दस लोग भी नहीं पकड़े जाते। आख़िर, जेल-मैनुअल और उसकी डायरी को मेंटेंन भी तो करना होता है। यहाँ हर बड़ी मछली छोटी मछली को निगल जाती है। 

थोड़ा बहुत गुलाब सिंह भी राजनीति समझता है। वो देख रहा है, कि इधर कुछ सालों में हमारे देश से कई उद्योगपति ग़ायब हो गये हैं। बैंकों से बड़ा-बड़ा क़र्ज़ा लेकर। हज़ार, दो-हज़ार, पाँच हज़ार करोड़। कोई उनका कुछ नहीं बिगाड़ सका। क्या ये सब बिना मिली भगत के होता है? क्या बड़े-बड़े एमपी, एमएलए, मिनिस्टर से उनकी कोई साँठ-गाँठ नहीं है? बिना साँठ-गाँठ के बैंक इनको इतना बड़ा-बड़ा क़र्ज़ा दे देते हैं। ऐसा कैसे हो सकता है? नहीं एक बहुत बड़ी लाॅबी होती है, इनकी। मिनिस्टरों से बड़ा-बड़ा क़रार होता है, इनका। बाहर के देशों में ये उद्योगपति इन मिनिस्टरों के लिये बैंकों में इनके नाम से पैसे जमा करवा देते हैं। उनके बच्चों के लिये शाॅपिंग माॅल, जिम, काॅम प्लेक्स बनवा देते हैं। इन पैसों से इन मिनिस्टरों के लिये विदेशों में जन समर्थन जुगाड़ किया-करवाया जाता है। ताकि, उनकी राजनीति वहाँ भी चमकायी जा सके। उद्योगपति वहाँ भी अपनी ज़मीन ले सकें। कारख़ाने लगा सकें। अपना व्यवसाय विदेशों तक फैला सकें। उनके प्रोडक्टस विदेशों में भी ज़ोर-शोर से बिके। उनकी आमदनी लगातार बढ़ती जाये। फिर वहाँ की सरकार में वे एक मुक़ाम हासिल करें। अपने लोगों के लिये लाॅबिंग करें। चुनाव में सरकार को फ़ंड दिये जाते हैं। जो करोड़ों रुपये के रूप में होते हैं। ये पैसे उद्योगपति सत्ता में बैठे सरकार और विपक्ष दोनों को बारी-बारी से देती है। अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थितियों को देखकर! सरकारें आती-जाती रहती हैं। जनता वही रहती है। जो उनके प्रोडक्ट ख़रीदती है। 

गुलाब सिंह का छोटा भाई संतन विकलांग है। उसका एक हाथ नहीं है। घर में बैठे-बैठे उसका मन नहीं लगता था। सोचा कोई छोटा-मोटा कुटीर उद्योग ही लगा ले। इसके लिये कुछ क़र्ज़ बैंक से ले ले। वो कई बैंकों के चक्कर लगाता रहा। लेकिन हाल वही था। जब तक हाथ पर कुछ रखोगे नहीं। फ़ाइल आगे नहीं बढ़ती। आज कल गुलाब सिंह के बनाये कट्टों पर संतन पाॅलिश करने का काम करता है। 

सरकार इन उद्योगपतियों के प्रत्यर्पण की बात करती है। लेकिन, लंदन और दूसरे देशों के प्रत्यर्पण क़ानूनों का मसौदा और उसकी जटिलतायें भी अलग-अलग हैं। जो चीज़ हमारे देश में अपराध है, ज़रूरी नहीं कि दूसरा देश भी उसे अपराध मान ले। बैंकों से पैसे लेकर भागे लोग उस देश में जाकर वहाँ अपने शाॅपिंग माॅल्स, खोलते हैं। कारख़ाने लगाते हैं। वहाँ काम लंदन, यू.के., और अमेरिकियों को मिलता है। अब कोई आदमी बाहर से आकर उनके देश के लोगों को काम देगा। उसके देश को कमाई देगा। तो ऐसा कौन-सा ऐसा देश है, जो हमारे देश की बात मानेगा। और उन उद्योगपतियों को हमारे सुपुर्द कर देगा? सभी अपने-अपने स्वार्थ से जुड़े हैं।

क्या हमारे देश के लोग नहीं चाहते कि हमारे देश में बड़ी-बड़ी कंपनियाँ लगें। लोगों को रोज़गार मिले। बेकारी ख़त्म हो। दरअसल दुनिया के सभी मुल्कों में रोज़गार एक प्रमुख समस्या के रूप में उभरकर सामने आयी है। एक ही देश के दो राज्यों के भीतर बाहरी-भीतरी की लड़ाई छिड़ी हुई है। कुछ सालों पहले आस्ट्रेलिया में एक आईटी के एक छात्र की हत्या हो गई थी। उस देश के लोगों को लगता है कि भारतीय छात्र उनकी नौकरियाँ खाते जा रहे हैं। विदेशों में भारतीय छात्रों पर हाल के वर्षों में हमले बढ़े हैं। इसका कारण केवल और केवल रोज़गार का छिन जाना है। अपने देश में भी महाराष्ट्र में बिहारियों और यूपी के लोगों को मारा और भगाया जा रहा है। सब प्राथमिकता सूची में आगे रहना चाहते हैं। अपने लोगों को सब जगह काम मिलना चाहिए। दूसरे लोग हाशिये पर धकेल दिये जाते हैं।
फिर, माजीद या गुरविंदर जैसे लोग थोड़ा बहुत हेर-फेर कर लेते हैं। तो इन सरकारों का क्या जाता है? ये तो जीने और खाने के लिये हेर-फेर करते हैं। लेकिन, ये सत्ता में फेर बदल या हेर-फेर नहीं करते? चुनाव के बाद विधायकों को ख़रीदकर विपक्षी-पार्टी अपना सरकार बनवाती हैं। ये लोकतंत्र की हत्या नहीं तो और क्या है? 

वकील पैसे लेकर अपराधी को बचाता है। बनिया अनाज में कंकर-पत्थर मिलाता है। ग्वाला दूध में पानी मिलाता है। सब अपने-अपने स्तर से हेर-फेर करते हैं। अपनी-अपनी सुविधा के अनुसार। फिर देश के इस पार और उस पार सियासतदान एक तरफ़ हमारी क़ौम को ख़तरा हैं। तो दूसरी तरफ़ हमारी क़ौम को ख़तरा है का राग अलापते हैं। और शिक्षा, महँगाई, बेरोज़गारी के मुद्दे पर चुप्पी साध लेते हैं। दोनोें देशों की सेनायें और जनता आपस में लड़ती और मरती रहती है। कभी देखा है इस पार के या उस पार के किसी नेता के बच्चे या नेता को मरते हुए। उनके लिये तो वीवीआईपी सुरक्षा की व्यवस्था होती है। किसी हंगामे में सिक्यूरिटी फ़िर्सेज नेताजी को सुरक्षित बाहर लेकर निकल जाती है। अख़बार के पृष्ठ पर किसानों और मज़दूरों के बच्चे जो या तो फ़ोर्सेज में या सेना में होते है़, मारे जाते हैं। सरहद पर या वीवीआईपी की सुरक्षा में जो गोली खाता है, वो, मज़दूर या किसान का बेटा ही होता है। 

“अजी, सुनते है। आज शाम का खाना नहीं बनेगा क्या? जाओ जाकर जंगल से लकड़ियाँ बीन लाओ,” लाडो ने हाँक लगाई तो गुलाब सिंह की तंद्रा फिर से एक बार टूटी। 

उसने पाईप को आग पर गर्म करने वाले पँखे को बंद किया और चल पड़ा जंगल की ओर लकड़ियाँ चुनने। 

थोड़ी देर बाद वो एक बोरे में थोड़े से पत्ते चुनकर जंगल से ले आया। पैतनपुर छोटा सा गाँव है। लेकिन उसके गाँव घर में उज्जवला का अब तक कोई कनेक्शन नहीं आया है। राशनकार्ड भी नहीं बना है, उसका। सिगड़ी में आग सुलग रही थी। उसने पतीली चढ़ाई चाय बनाने के लिये। उस आग में उसको अपना भविष्य भी धू-धू करके जलता दिखने लगा था। उसमें अब उस आग से आँख मिलाने का ताव नहीं बचा था। वो, क्या करेगा जब उसका बच्चा भी अपराधी बन जायेगा? 

उसके दादा-पड़दादा आज़ादी के आंदोलन में स्वतंत्रता सेनानियों के लिये तलवार, फरसा, गंडासा और भाला बनाते थे। अँग्रेज़ों से लड़ाई के लिये। लेकिन उन दिनों दूसरे लोग या विदेशी हमारे दुश्मन थे। अब अपने लोग हैं। जो सत्ता में बराबर की भागीदारी रखते हैं। लेकिन, हमारे हक़ की बात कभी नहीं करते।

फिर, कौन अपने और कौन बेगाने लोग? जो अपने हैं, घोटाले कर रहें हैं। हमारे हिस्से का सब कुछ सफ़ेदपोश बनकर हमारे ही सामने खा जा रहे हैं। भेड़ों का शिकार कुछ भेड़िये कर रहे हैं। भेड़ों का एक भरा पूरा झुंड है। भेडिये, शेर की तरह भेड़ के पुठ्ठों को नोंच खाना चाहते हैं। और भेड़ों का झुंड असहाय होकर एक-दूसरे को ताक रहा है। इससे भले तो ब्रिटिशर थे। कम से कम आज़ादी के इतने दिनों के बाद भी बने पुल-पुलिया, साबुत बचे हैं। यहाँ तो उदघाट्न के दो दिन बाद ही पुल-पुलिया गिर जा रहे हैं। क्या हुआ आज़ादी के पचहत्तर-छिहत्तर सालों के बाद भी? विकास, गुलाब सिंह के गाँव का रास्ता जैसे भटक-सा गया है। उसके गाँव में आज भी पक्की सड़क नहीं बनी है। चापाकल तो हैं, लेकिन उनमें पानी नहीं आता। सिस्टम की तरह विकास भी अंधा हो गया है! 

“बाबा काम हो गया क्या? कार वाली पाईप समेट कर रख दूँ?” करमजीत सिगड़ी पर चढ़ी चाय को देखते हुए बोला। 

“नहीं बेटे, कार की पाईप बाद में रखना। इधर आ मेरे पास आकर बैठ,” करमजीत वहीं पास में आकर ज़मीन पर बैठ गया। 

“बेटा, कोई भी बाप ये नहीं चाहेगा कि उसका बेटा बड़ा होकर कट्टा बनाये। कल से ये कट्टा बनाने का काम मैं छोड़ दूँगा। क्या करूँगा, तुम्हें अपराधी बनाकर! कल बाहर चला जाऊँगा। तुझे और तेरी अम्मा को भी साथ ले चलूँगा। चेन्नई तेरे मामा के पास। तेरा मामा वहीं पोर्ट पर काम करता है। वहीं कोई काम खोज लेंगे। ना तो अब कट्टा बनाऊँगा। ना ही बेचूँगा। अब कभी इस गाँव में नहीं लौटेंगें हम। तुझे अपने सामने ख़त्म होते हुए नहीं देख सकता, बेटा।” 

और गुलाब सिंह ने अपने बेटे करमजीत को अपने से चिपटा लिया। वो लगातार रोये जा रहा था। 

करमजीत को अब भी ये समझ में नहीं आ रहा था, कि आख़िर हुआ क्या है? 

लेकिन; क्या इतने भर से ये समस्या ख़त्म हो जानी थी? उस गाँव में जब सैकड़ों की संख्या में गुलाब सिंह जैसे लोग थे। सैकड़ों की संख्या में करमजीत सिंह और सीमा के उस पार माजीद जैसे लड़के थे? . . . 

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