जनवरी की रात
काव्य साहित्य | कविता महेश कुमार केशरी1 Feb 2025 (अंक: 270, प्रथम, 2025 में प्रकाशित)
जनवरी में तिल था
तिल में गुड़ था
गुड़़ में मिठास थी
मिठास में तुम थी
तुम थी और रात थी,
उस रात की वो बात थी।
रात में जुगनू थे,
निरभ्र आकाश था . . .
आकाश में तारे थे, और चाँद था
वो, स्वप्न की एक रात थी,
तारे थे और उनकी ज़मीं थी।
ज़मीन पर तालाब था,
तालाब में पानी था
पानी बहुत ठंडा था।
चाँद की रौशनी
तालाब में छिटकी थी।
निरभ्र आकाश था,
तुम थी और मैं था।
तुम्हारा चेहरा रूज से लिपटा था,
इत्र से तुम नहाई थी।
तालाब थे पहाड़ थे,
आसपास कोई गाँव था
सहसा मैं ठिठका—
दूर एक आवाज़ थी
आवाज़ कोई प्रेमी की थी,
जो विरह गा रहा था
गीत नहीं वो आर्त्तनाद था।
गाँव से दूर एक महल था
महल में परी थी
परी थी तो ख़ूबसूरत थी।
प्रेमी उसको प्रेम करता था . . .
सुना था गाँव वालों से कि
वो कोई गीतकार था
उसको गीत कंठस्थ थे
वो, कोई एकलव्य के कुल-गोत्र का था।
उसकी गायन शैली पर
गंधर्व से लेकर देवता
दानव सब मुग्ध हो जाते थे,
वो प्रेमी अनोखा शाहकार
और फ़नकार था।
उसके गाने से दिशायें
विचलित होने लगती थीं
समुद्र का हृदय, हहराने लगता था
पहाड़ मुग्ध हो जाते थे।
राजमहल की परी,
उस फ़नकार से
प्रेम करने लगी थी
ये बात उड़ते-उड़ते,
राजा के पास पहुँची थी।
राजा ने सलीब पर उस फ़नकार को
टँगवा दिया था . . .
ये उसी फ़नकार का आर्त्तनाद था।
जब जब वो फ़नकार आर्त्तनाद लगाता
तालाब सैंकड़ों फ़ीट, ऊपर उठ जाता।
और दिशायें चीखकर
उसके लिए राजा से इंसाफ़ माँगतीं।
वो, रात थी और स्वप्न था,
वो परी थी लेकिन
अभिशप्त थी . . .!
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