मेरे भीतर तुम
काव्य साहित्य | कविता महेश कुमार केशरी15 Oct 2025 (अंक: 286, द्वितीय, 2025 में प्रकाशित)
देखो तुम मेरे भीतर से
मरती चली गई
और मुझे पता भी नहीं चला
ये बात मुझे अभी बहुत दुःख पहुँचा रही है
मैं सच कह रहा हूँ
रो दूँगा मैं इस बात पर
किसी अबोध बच्चे की तरह
मैं नहीं चाहता तुम्हें भूलना
मैं रखना चाहता हूँ पूरी
दुनिया से छुपाकर तुम्हारी स्मृतियाँ
सचमुच मैं दुःखी हूँ
कि तुम मेरी स्मृतियों से लोप हो रही हो
मैं सच कह रहा हूँ
इधर सालों मैं दिन, दोपहर, सुबह, शाम
किसी ना किसी बहाने से तुम्हें
याद करता रहा हूँ
सच कहता हूँ—
मैं, सूर्य, पृथ्वी, अग्नि, जल,
और तुम्हें साक्षी मानकर॥
पता नहीं तुम्हारा दिल
किस मिट्टी का बना है
स्मृतियाँ, जिजीविषाएँ, प्रेम तुम्हारे लिए
ये सब बेमानी बातें हैं
लेकिन मैंने लिखे हैं तुम्हारे लिए
सर्दियों की दोपहर में बैठकर प्रेम-पत्र
उनींदी रातों को चौंक-चौंक कर जाग पड़ता हूँ
आँखें जल रहीं हैं
जैसे सालों से सोया नहीं!
मंज़िल के बारे में कभी
सोचा ही नहीं
तुम्हें ढूँढ़ते-ढूँढ़ते सफ़र
हो कर रह गया हूँ
इतना भागा हूँ तुम्हारे लिए
कि कभी मंज़िल की सुध ही ना रही
मैं, सँवेदनाओं का होकर रह गया
मैं बच्चे की तरह हूँ, मासूम
तुम्हें भूल ही नहीं पाता!
तुम मेरी स्मृतियों के तुँतुओं से गुँथी हो
तुम, बँधी हो मेरी आत्मा की शिराओं से!
दौड़ते-दौड़ते अब आत्मा भी थक गई है
माँ-बाप बूढ़े हो चुके हैं
कमाने-धमाने की सुध ले रहा हूँ
दवाओं और ज़रूरी ख़र्चों के लिए
तगादे होने लगे हैं . . .
कब तक बैठा रहूँगा, तुम्हारी
स्मृतियों की खोह में!
मैं, भी दस से पाँच के काम पर चला जाता हूँ
कुछ पैसा कमाने ज़िम्मेदारियों का बोझ उठाने
तुम्हारे लिए लिखे प्रेमपत्र
अब पीले पड़ चुके हैं!
तुम्हारे लिए ख़रीदे गुलाब
अब खाद बन गए हैं!
मैं अब निकल आया हूँ
स्मृतियों के कमरे से
स्मृतियों की आत्मा पर
अब धूल पड़ चुकी है!
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