शिष्टाचार
कथा साहित्य | कहानी महेश कुमार केशरी15 Aug 2024 (अंक: 259, द्वितीय, 2024 में प्रकाशित)
लखविंदर प्लैटफ़ॉर्म पर से बड़ी जल्दबाज़ी में निकलने की फ़िराक़ में था। वो तेज़-तेज़ क़दमों से सीढ़ियाँ उतरने लगा। प्लैटफ़ॉर्म की आख़िरी दो सीढ़ियों से वो कुछ जल्दी में उतर जाना चाहता था। उसकी टैक्सी स्टेशन के बाहर खड़ी थी। पता नहीं ड्राइवर रुके-रुके ना-रुके। आजकल सबको जल्दी है। बेतरतीबी में अचानक से वो दो सीढ़ियाँ एक साथ उतर गया था। तभी वो गिरते-गिरते बचा था। प्लैटफ़ॉर्म की आख़िरी सीढ़ी पर कोई युवक सोया हुआ था।
वो अचानक से उस पर बरस पड़ा, “तुम लोगों को सोने के लिए और कोई जगह नहीं मिलती है क्या? ये स्टेशन तुम्हारे बाप का है क्या? आख़िर सीढ़ियों के पास कौन सोता है? तुम लोग शुरू से ही जाहिल और गँवार क़िस्म के लोग रहे हो। इडियट . . . नाॅन सेंस। जंगली, गँवार। तुम्हें पता नहीं है कि मेरी टैक्सी बाहर खड़ी है। और मैं तुम्हारी वजह से अभी गिरते गिरते बचा हूँ।”
युवक अब उठकर बैठ गया था। मैले कुचैले कपड़ों में वो कोई मज़दूर मालूम पड़ता था। सिरहाने रखे कंबल को तह करके वो एक ओर रखते हुए बोला, “बाबूजी दिन भर रिक्शा खींचता हूँ। प्लैटफ़ॉर्म के किनारे इसलिये नहीं सोता कि लोग-बाग दिन भर ट्रॉली बैग टाँगकर इस प्लैटफ़ॉर्म से उस प्लैटफ़ॉर्म पर भागते रहते हैं, और वहाँ आपा-धापी मची रहती है। ख़ैर; हम ग़रीबों को नींद भी कहाँ आ पाती है। एक ट्रेन जाती नहीं कि दूसरी ट्रेन आ जाती है। वैसे क़ायदे से जब हम किसी से टकराते हैं। या किसी को ग़लती से हमारा पैर लग जाता है,। तो हम सामने वाले को छूकर प्रणाम करते हैं। इसको शायद मैनर्स कहा जाता है। हिंदी में शिष्टाचार। लेकिन आपा-धापी में हम शिष्टाचार भूलने लगे हैं।”
युवक थोड़ा रुका। फिर, बोला, “साॅरी सर। मैं आपके रास्ते में आकर प्लैटफ़ॉर्म पर सो गया था। बाबूजी एक बात बोलूँ। आदमी को खाना कम बेसी मिले, चल जाता है। लेकिन, नींद पूरी मिलनी चाहिए। लेकिन, देखिये हमारी ज़िन्दगी में नींद भी ठीक से नहीं मिल पाती है। सब, अपना अपना नसीब है, बाबूजी। क्या कीजियेगा? बाबूजी आपको कहीं लगी तो नहीं ना। पैर में कुछ मोच-वोच तो नहीं आ गई। लाईये, आपके टखने दबा देता हूँ।”
लड़का लखविंदर के पैर पकड़कर दबाने लगा।
सचमुच दो सीढ़ियों से एक साथ उतरने से उसकी एड़ी में मोच आ गई थी।
“नहीं ठीक है, रहने दो।”
लखविंदर जल्दी में था। उसकी टैक्सी छूटने वाली थी।
टैक्सी में बैठा तो उसे उस युवक की बातें याद आने लगी। आदमी आख़िर है क्या? वक़्त के हाथों की कठपुतली। बातचीत के लिहाज़ से वो लड़का बिहारी लग रहा था। यहाँ चण्डीगढ़ में वो रिक्शा खींचता होगा। उसने क़यास लगाया। स्टेशन के बाहर ही तो जहाँ वो सोया हुआ था; उससे थोड़ी दूरी पर एक रिक्शा खड़ा था। वो याद करने लगा अपने पुराने दिन। वो भी तो चण्डीगढ़ छोड़कर मद्रास चला गया था, अपने काम के सिलसिले में। वहीं स्टेशन के बाहर बस-डिपो के पास उसकी भी तो कई रातें ऐसे ही तो बीती थीं। उसके पास तो उन दिनों खाने तक के पैसे नहीं होते थे। कई दिनों तक तो कई बस कण्डक्टरों और ड्राॅइवरों ने उसे खाना खिलाया था। तब उन लोगों ने तो ऐसा व्यवहार उसके साथ नहीं किया था। उसने उस रिक्शेवाले को कितना सुनाया। आख़िर कौन परदेश में परदेशी नहीं है। अपनी जगह कोई जानबूझकर तो नहीं छोड़ता है। सब पेट के चलते ही तो देश-निकाला हो जाते हैं। ना जाने किसकी तक़दीर में कहाँ का दाना-पानी लिखा है। नहीं तो किसको अपना मुल्क छोड़ने का जी करता है। सही तो कहा है किसी ने। ये पेट जो ना होता तो भेंट नहीं होता। आज सब जल्दीबाज़ी में है। एक दूसरे को कुचलकर आगे बढ़ने की फ़िराक़ में। सबको जल्दी है। भले ही वो दूसरों का हक़ छीन ले!
किसके पास मैनर्स की कमी है। कौन, इडियट, नाॅनसेंस, कौन जंगली या गँवार है। बंद एसी कार में भी लखविंदर को पसीना आने लगा। उसने खिड़की खोल दी।
ड्राइवर ने कार धीमी कर दी।
फिर मिरर से देखते हुए लखविंदर से बोला, “सर, आर यू ओके?”
वह चुप रहा।
“सर, कार का शीशा बंद कर दीजिये। ए.सी. काम नहीं करेगा।”
वह अभी भी चुप ही था।
“सर आर यू ऑलराइट?”
“सुनो, कार को वापस स्टेशन की तरफ़ मोड़ लो।”
“सर, क्यों?”
“बस, ऐसे ही।”
“सर, आपका घर अब बमुश्किल से आधा किलो मीटर ही आना शेष है। बहुत रात हो गई है, सर। मेरे बच्चे मेरा घर पर इंतज़ार कर रहें होंगे।”
“नहीं तुम स्टेशन तक फिर से वापस चलो। एक ज़रूरी सामान, शायद अपना बैग मैं छह नंबर प्लैटफ़ॉर्म पर ही भूल गया हूँ।”
लखविंदर झूठ बोल गया।
“ओह!, लेकिन वो मिलेगी नहीं। आप बेकार ही जा रहे हैं। स्टेशन पर छूटी हुई चीज़ें चोरी हो जातीं हैं। कभी नहीं मिलतीं।”
“कोई बात नहीं। फिर भी चलो।”
ससुरा, ई सरदरवा सचमुच में पागल लगता है l गाड़ी लेकर नहीं पहुँचा था l तो फोन पर फोन कर रहा था l जल्दी आने को कह रहा था l जल्दी पहुँच गया तो ये हाल है कि फिर स्टेशन पहुँचाने को कह रहा है।
“भाड़ा, डबल लगेगा। बोलो मँजूर है।”
“हूँ।”
रास्ते भर लखविंदर यही सोचता रहा कि किसी तरह वो लड़का उसे उसी जगह फिर से वापस मिल जाये।
कार रात होने की वजह से और सड़क ख़ाली होने की वजह से भी हवा से बातें कर रही थी। आधे पौन घंटे के बाद लखविंदर फिर से चँडीगढ़ के उसी स्टेशन पर था। लखविंदर की बैचैनी बहुत बढ़ गई थी। उसे पता नहीं ऐसा क्यों लग रहा था। कि वो युवक जिसे उसने अपनी ग़लती की वजह से बहुत बुरा-भला कहा था। वो उस प्लैटफ़ॉर्म पर नहीं मिलेगा। रात के ग्यारह बज रहे थे। वो छह नंबर प्लैटफ़ॉर्म पर था। लेकिन सचमुच में लखविंदर ने जैसा सोचा था। ठीक वैसा ही हुआ। लड़का उस छह नंबर प्लैटफ़ॉर्म पर नहीं था। लेकिन लखविंदर भी बहुत ही आत्मविश्वासी आदमी था। वो बारी-बारी से एक . . .दो . . .तीन . . . चार . . .पाँच . . .छह . . . सात सभी प्लैटफ़ॉर्म को इँच-इँच चेक कर आया था। लेकिन लड़का नदारद था। लखविंदर का दिल बैठ गया।
वो, वापस स्टेशन से बाहर निकलने को हुआ। तभी रास्ते में एक उसी शक्लो सूरत का एक शख़्स उससे जा टकराया।
ये वही लड़का था। जो छह नंबर प्लैटफ़ॉर्म के नीचे सबसे आख़िर वाली सींढ़ी पर सोया था।
लखविंदर को संकोच हुआ। पता नहीं ये शख़्स वही है या कोई और है। इन कुलियों और रिक्शों वाले के शक्ल भी तो एक जैसे दिखते हैं।
अपनी झिझक को परे धकेलते हुए, लखविंदर बोला, “भाई तुम वही रिक्शेवाले हो ना जिसको कि मेरे टखने से चोट लगी थी।”
“हूँ, जी नहीं। मैं तो अभी-अभी आया हूँ।”
युवक साफ़-साफ़ झूठ बोल गया। दरअसल वो रिक्शेवाला लखविंदर की परीक्षा ले रहा था।
“ओह! माफ़ करना भाई। आपकी तरह का ही एक नौजवान रिक्शेवाला था। जिसे पता नहीं मैं घंटे भर पहले बहुत भला बुरा कह आया था। बहुत अफ़सोस है, यार मुझे इस बात का। एक तो मैं उसके ऊपर चढ़ा। और उसको ही बहुत भला-बुरा भी कह दिया। बेचारे उस लड़के की कोई ग़लती नहीं थी। मैं ही शिष्टाचार भूल गया था। आप भी तो रिक्शा चलाते हैं, ना। क्या आप जानते हैं उसे? जो छह नंबर प्लैटफ़ॉर्म पर सोता है।”
“कौन भीखू। जो छह नंबर पर रोज़ रात को सोता है, वही ना . . . हाँ, मैं उसे जानता हूँ।”
“आपका कुछ चुराया है उसने क्या?” भीखू बोला।
“अरे, नहीं भाई। वो तो बड़ा सज्जन आदमी है। अकड़ू तो मैं हूँ। पता नहीं ग़ुस्से में उसको क्या-क्या कह गया।”
“ठीक है, मिलेगा तो उसको कुछ कहना है क्या? उसका नाम भीखू है।”
“हाँ, वही, लड़का। भीखू।”
“भाई, इस पत्र में मैंने अपना सब हाल लिख दिया है। भीखू मिले तो उसको दे देना।”
लखविंदर के दिमाग़ में इस बात का इलहाम पहले से था। उसने कार में ही अपने ऑफ़िस के पैड पर एक ख़त उस युवक के नाम लिख दिया था।
“प्रिय भाई . . .
पता नहीं ये कैसा संयोग है कि एक अनपढ़ आदमी ने मुझ जैसे पढ़े-लिखे आदमी का घमंड चकनाचूर कर दिया है। आप जहाँ सोये थे वैसी जगह पर मैंने भी अपनी ग़रीबी भरे दिन ऐसे ही बिताये थे। बहुत फ़ाक़कशी और ग़ुर्बत के दिन मैंने भी देखे हैं। मेरे घर में भी कई-कई दिनों तक चूल्हा नहीं जला था। मैं भी फ़ाक़ाकशी का शिकार एक लंबे वक़्त तक रहा। लेकिन मैं अपने पुराने दिन भूल गया। आज जब मैं आपके ऊपर गिरा तो क़ायदे से मुझे आपसे माफ़ी माँगनी चाहिए थी। लेकिन, ये पुनीत कार्य भी आप ही कर गये। आपके कहे अल्फ़ाज़ आज अभी मेरे दिल में काँच के किरचों की तरह चुभ रहे हैं। मैं, पानी में डूब मरने लायक़ भी नहीं हूँ। ख़ैर, आज मैं अपनी ही नज़रों में जितना जलील हुआ हूँ। कि आपको बता नहीं सकता। हालाँकि माफ़ी माँग लेने भर से मेरा काम ख़त्म नहीं हो जाता। फिर, भी मैं अपने व्यवहार पर बहुत लज्जित हूँ।
“फिर भी मुझे अपना बड़ा भाई समझकर माफ़ कर देना। मैं अभी चंडीगढ़ में ही हूँ। अगर आपको ये ख़त मिलता है। तो इसमें मैं अपना पूरा नाम, पता, मोबाइल नंबर लिख दे रहा हूँ। आपको कभी भी किसी सहायता की ज़रूरत हो तो निःसंकोच होकर इस पते पर या अमुक दिये गये मोबाइल नंबर पर संपर्क करें। मैं, वैसे तो मद्रास में काम करता हूँ। लेकिन, मेरे घर पर मेरे अलावा मेरे माता-पिता, दो बड़े भाई, मेरी पत्नी और बच्चे सभी लोग रहते हैं। आपको कभी काम हो। या किसी चीज़ की ज़रूरत हो। तो निःसंदेह आकर मिलियेगा। या दिये गये मोबाइल नंबर पर संपर्क कीजियेगा।
आपका भाई
लखविंदर सिंह
पत्ता-५६/ ८१, गुरूतेबहादुर गली
मकान नंबर-८७१
मोबाइल-८८७७३३”
भीखू ने पत्र अपने हाथ में रख लिया। फिर बोला, “अगर वो लड़का ना मिला तो?”
“भाई, उसके पते पर डाक में डाल देना। वरना मैं अपने आपको कभी माफ़ नहीं कर पाऊँगा। या ऐसा करो उसका पता भी इस छोटी डायरी में लिख दो।”
लखविंदर ने जेब से एक छोटी डायरी निकालकर दी। और भीखू से कहा, “इसमें उसका पता लिख दो भाई।”
भीखू ने डायरी हाथ में लेते हुए कहा, “पता तो मैं आपको लिख कर दे दे रहा हूँ। लेकिन जो आपको डायरी में पता लिखकर दे रहा हूँ। उसे आप घर जाकर ही पढ़ना। ठीक है।”
लखविंदर ने “हाँ” में सिर हिलाया।
लखविंदर स्टेशन से बाहर निकला तो देखा कि कार का ड्राइवर कार में ही ऊँघ रहा था।
लखविंदर ने ड्राइवर को चलने को कहा।
ड्राइवर, “आपका छूटा हुआ बैग प्लैटफ़ॉर्म पर मिला।”
“ नहीं।”
“मैंने पहले ही कहा था। बैग नहीं मिलेगा। बेकार ही हम वापस आये। इतने समय में मैं घर पहुँच गया होता।”
लखविंदर को भी अफ़सोस सो रहा था। कि उसके चक्कर में बेचारा ड्राइवर भी रात को परेशान हुआ।
“भाई, साॅरी यार। तुझे इतनी रात को परेशान किया।”
“अरे, कोई गल्ल नहीं सरदार जी।”
रास्ते में लखविंदर सोचता जा रहा था। बेकार ही वो स्टेशन गया। उस लड़के से मुलाक़ात भी नहीं हो पाई।
लखविंदर को सिगरेट पीने की तलब हुई। उसने जेब टटोलकर सिगरेट का पैकेट ढूँढ़ना शुरू किया। सिगरेट का पैकेट तो नहीं मिला। लेकिन, वो डायरी मिली। जिसमें उसने भीखू का पता उस लड़के को नोट करने को दिया था। उसमें पता तो नहीं था। अलबत्ता एक ख़त था।
“बड़े भइया,
मैं आपको देख़ते ही पहचान गया था। आपकी मुखमुद्रा देखकर मुझे लगा कि आप मुझे ही ढूँढ़ रहे हैं। लेकिन मैं डर गया था। कि कहीं आप मुझे और भी भला-बुरा ना कहने लगे। लिहाज़ा, मैं आपको अपना परिचय नहीं दे पाया। दरअसल मैं वही लड़का हूँ। जो छह नंबर प्लैटफ़ॉर्म पर सोता हूँ। मेरा ही नाम भीखू है। जो अभी-अभी आपसे मिला था। दूसरी बात ये भी थी कि मैं आपको, अपने सामने शर्मिंदा होते नहीं देख सकता था। इसी संकोच के कारण भी मैं आपसे कुछ ना कह सका। मैं, आपको छोटा नहीं दिखाना चाहता था। इसीलिए अपना परिचय छिपाया। ख़ैर; कभी इस लायक़ हुआ तो आपसे मिलने आपके घर या आपके दफ़्तर मद्रास ज़रूर आऊँगा।
आपका छोटा भाई भीखू।”
पत्र पढ़कर लखविंदर के आँखों से आँसू बहने लगे। सचमुच भीखू के अन्दर भरे शिष्टाचार के सामने लखविंदर बहुत छोटा था।
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