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एक चींटे का फ़्लर्ट

"कागज़ की नाव वाला कॉन्सेप्ट ही नईंच… ये तो प्लास्टिक की नाव है रे… गल कर डूबने का झंझटइच नईं… ए ए आती क्या खंडाला।" चींटे ने ऊँचाई से पुकारा चींटी वैसे समझदार थी। इस मनचले की बातों में उसे नहीं आना था लेकिन उस दिन उसका भेजा सनक गया था। बाहर हल्की फुहार पड़ रही थी। हवा में नमी थी और चीनी के उस आधे भरे डिब्बे की हवा भी मीठी हो गई थी। शक्कर के दानों के बीच, मुख के अलावा, नथुनों में भी उसने मिठास की गंध अनुभूत की थी, तिस पर इस मुए चींटे का गा-गा कर बुलाना…! चींटी ने सोचा, "मैं भी तो देखूँ भला न गलने वाली इसकी नाव कैसी है।" वह शक्कर के दानों के बीच से सरकती हुई डिब्बे की दीवार पर चढ़ी और किनारे तक जा पहुँची जो पीपे का सबसे ऊँचा स्थान था। वहाँ पहुँच कर उसने देखा डिब्बे के चारों ओर पानी था। घर की मालकिन बड़ी खड़ूस थी। बाहर से चींटे डिब्बे में न आ सकें इसलिए, डिब्बे को पानी से भरी थाली में रख दिया था। इससे भी पहले उसने डिब्बे को धूप में रखा था क्योंकि डिब्बा खोलते ही उसे ढेरों चींटियाँ दिखीं थीं। बड़बड़ा कर उसने डिब्बा आँगन में पटक दिया था। तब बादल नहीं थे उमस भरी गर्मी थी। तेज़ धूप थी कई चींटे मरे पड़े हैं।उफ्फ! ये इंसान हम चींटों दे इतना चिढ़ते क्यों हैं!

वो ऊँचाई पर बैठी यही सब सोच रही थी कि थाली के होठों रूपी दीवार पर बैठे चींटे को उसने ’आती क्या खंडाला’ गाते सुना। थाली के पानी में पन्नी का एक टुकड़ा जाने कहाँ से उड़ कर आ गया था।… बस्स… बन गया चींटा मजनू।

चींटी सुनती रही, छज्जे से, फिर वापस डिब्बे में सरक गई... हुँह… मनचला कहीं का!

दाल गलती न देख, चींटा थाली की दीवार से उतर कर फ़र्श पर आ गया। जल्दी ही रेंगते हुए बग़ीचे की कच्ची ज़मीन पर पहुँच गया। वहाँ पड़ी हरी टहनी पर चढ़ कर उसने देखा कहीं से चींटियों की एक लंबी डोरी सी खींची चली आ रही है। वो एक पत्ती के नीचे दुबक कर डोरी में गुँथी चींटियों को देखने लगा... ’आती क्या खंडाला’, उसके गले से यूँ ही फूट पड़ा। एक चींटी उसका गाना सुन कर उधर देखने लगी। चींटे की आँखों में चमक आ गई।

वो समांतर चलने लगा। धीरे-धीरे दोनों में बात-चीत शुरू हुई। चींटी, अब लाइन से अलग हो गई। वे दोनों वहाँ से हटे और दूर एक बस्ती में जा कर रहने लगे। इस बस्ती के घरों की छत और दीवारें गुड़ से बनी थीं। बाहर गन्ने के खेत थे और शक्कर के दानों की बनी सड़क थी। वे दोनों वहाँ प्रेम से रहने लगे। एक दिन उन्होंने देखा, शक्कर के दानों पर अनगिनत चींटे मरे पड़े हैं। चींटियाँ भी। 

वे दोनों सहम गए। कुछ दूरी पर चींटियों की एक लाइन फिर दिखी। उनके अगले भाग पर कुछ सफेद चिपका था। ये उनका मास्क था। 

एक ने बताया, “हमारी बस्ती में कोरोना फैला है।"

“इंसानों की बीमारी हम तक पहुँच गई। हम तो सावधान हैं देखो मास्क भी लगा है और दूरी भी है हमारे बीच, लेकिन ये मानव, ये तो लापरवाही और मनमाने आचरण से पूरी जीव जाति को ही ख़तरे में डाले दे रहे हैं,“ कहते हुए चींटे ने चींटी की टाँग पकड़ी और मन में इंसानों के लिए क्रोध और दया का मिश्रित भाव लिए, घर की ओर चल दिया। मगर घर में घुसने से पहले उसने चींटी को रोका, ”अब हम यहाँ नहीं रहेंगे। धरती पर जीवन ख़तरे में है।“

“तो फिर हम कहाँ रहेंगे?” चींटी रुआँसी हो गई। पूर्णमासी की साँझ गहरा रही थी। 

चींटे ने ऊपर की ओर इशारा करके कहा, ”हम दोनों वहाँ रहेंगे।" 

चींटे ने एक चकोर के पैर में ख़ुद को और चींटी को बाँध लिया। वे दोनों चाँद पर पहुँचने का स्वप्न देखने लगे। वहाँ उसने देखा कोरोना जैसा कुछ नहीं था। चारों ओर उल्लास और आनन्द बिखरा पड़ा था। अहा! निर्मल, शीतल, कोरोना विहीन चाँद। तभी इसका इतना मान है। वे दोनों ख़ुशी से इधर-उधर घूमने लगे।

“ला ला ला,” चींटी के पास जा कर वह एक चक्कर नाचा। तभी वह एकाएक उदास हो गया, ”हम यहाँ खाएँगे क्या? वो गुड़ की बस्ती, गन्ने के खेत और शक्कर की सड़क… कुछ भी तो नहीं है यहाँ।"

वे दोनों ही उदास हो गए। इससे पहले कि चकोर वापस पृथ्वी का रुख़ करे, उन दोनों ने ख़ुद को चकोर के परों में चिपका लिया और वे वापस धरती पर आ गए। वे फिर चलते हुए वापस पक्के फ़र्श, फिर पानी की थाली तक पहुँच गए। थाली के पानी में पन्नी के तैरते टुकड़े को देख चींटे के मुँह से अनजाने ही गीत फूट पड़ा। वे उस पन्नी के टुकड़े पर चढ़ कर डिब्बे की दीवार तक पहुँच गए। उस पर चढ़ कर वे डिब्बे पर चढ़ गए। मगर भीतर रेंगने से पहले दोनों ने पलट कर पीछे, फिर ऊपर देखा। चींटा भावुक हो उठा, “सबसे अच्छी तो अपनी पृथ्वी है... यहाँ ये चीनी का डिब्बा है।“

चींटी पतली आवाज़ में बोली, “चाँद तो बस देखने भर का है।“

चींटे ने जोड़ा, ”वह तो बस शेरो-शायरी के लिए ठीक है।“ 
दोनों ने एक दूसरे को प्यार से देखा और शक्कर के दानों के बीच सरक गए।

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