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उल्लू होने की कामना

बात तभी से मन में दबी पड़ी है जबसे यह पता चला है कि लक्ष्मी जी का वाहन उल्लू है। प्रथम तो, यह जानना ज़रूरी है कि कोई भी देवी-देवता पैदल नहीं चलते। न ही ये अपने टाइप के पब्लिक वाहन में चलते हैं। सबके पास वाहन है। वह भी निजी। सभी ने अपना स्टेटस मेंटेन किया हुआ है। इनका निजी वाहन हम मनुजों को अनेक गूढ़ अर्थ देता है, जो गूढ़ ही रह जाते अगर इन्हें अगूढ़ करने के लिए पंडित जी सरीखे विद्वान न होते! इन्होंने अपने आप को भगवान और भक्त के बीच इस तरह सेट किया है कि इनके बिना उन तक पहुँचने के बारे में आप केवल सोच सकते हैं, पहुँचने की गतिविधि नहीं सकते। सभी देवी-देवता किसी न किसी सम्पदा विशेष के स्वामी बताए गए हैं यथा गणपति बुद्धि के, सरस्वती विद्या की, लक्ष्मी वैभव की; जानकर मनुष्य सक्रिय रूप से इनसे जुड़ने के प्रयत्न में लगा हुआ है। 

हरेक को साधने की एक विशेष विधि जिसे साधना कहा गया है,  किंतु उसमें तप और संयम आदि लफड़े की चीज़ें लगतीं हैं। इतना टाइम आजकल के भक्त के पास कहाँ! लिहाज़ा उसने शॉर्ट कट सर्च किए और करता ही चला गया। फलस्वरूप उसे कुछ सूत्र हाथ लगे। गणपति के लिए मूषकराज, शिव के लिए नंदी महाराज आदि; तो फिर लक्ष्मी के लिए उल्लू क्यों नहीं . . . उसकी निष्पत्ति। अगर आप देवता के वाहन को प्रसन्न कर लेते हैं तो भी आपकी बिगड़ी बनेगी। कैसे? वे देवी-देवता तक आपकी बात पहुँचा देंगे। आपकी बिगड़ी बनेगी। आपको कृपा प्राप्त होगी। अब प्रश्न उठा, कैसे? 

– 'गुन-गाहक' बनें। 

– गुण किसके? देवता के! 

–  नहीं। यह तो कठिन काम हुआ यद्यपि मनुज से अपेक्षित यही है। अपेक्षा देखें- सरल स्वभाव, कठिन काम। घोर विसंगति। 

– तब किसके गुण ग्रहण करें? 

– वाहन के। वाहन के गुण ग्रहण कर लें बस्स। इति सिद्धम।

इतना जानने के बाद से ही भक्त हर्षोन्माद में हैं। वे तरह-तरह के उपाय अपनाने में लगे हैं। शिव की कृपा पाने के लिए वे नंदी को पूज रहे हैं। अपनी व्यथा उसके कान में फुसफुसा कर आश्वस्त हो जाते हैं कि देर सबेर महादेव तक बात पहुँचेगी ही। इन वाहनों के निहितार्थ जब भी बताए जाते हैं, भक्त गद्‌गद्‌ हो जाते हैं, जैसे विद्यार्थी गण कोरोना में बिना परीक्षा, पास होने पर हुए थे। 

यूँ देवता हो जाना बहुत उद्यम माँगता है। इनका संबंध इंद्रियों से बताया गया है।  चेतावनी सरीखी दी गई है कि अमुक वाली इंद्रिय का संयम बरता गया तो अमुक वाले प्रसन्न होंगे। मगर भक्त इन चक्करों में पड़ना नहीं चाहता। डायरेक्ट कृपा चाहिए। अब आपसे क्या छुपाना, आज के भक्त को  'मनी' चाहिए; कौन 'मना' करता है भई ! 

एक हैं, श्रीमान जी.आर. रागी। मेरे सहकर्मी। पूरा नाम ज्ञान चंद रागी। अपनी माली हालत से तंग आ चुके हैं वैसे इस मामले में सुखी और संतुष्ट तो विरला ही होगा। संपन्नता एक ऐसी बुशर्ट है कि चाहे जितनी बड़ी हो, तंग ही रहती है; मगर रागी जी चेतना संपन्न व्यक्ति हैं लिहाज़ा इस तंगी से बाहर निकलना चाहते हैं। बहुत हुआ मेहनत और ईमानदारी का जीवन। इसी में बीस एक साल गँवा दिए। वे तो इतना भी न चलते मगर बचपन से ही ऊटपटांग ज्ञान उनके मन- मस्तिष्क में भर दिया  गया था। उस ज़माने में हरिश्चंद्र, विवेकानंद, सरदार पटेल आदि पढ़ा दिए गए, वह भी ज़िंदगी में सबक़ सरीखे; परीक्षा भर के लिए रटा दिए गए होते तो अधिक नुक़सान नहीं था। नाम भी ज्ञान चंद धरा गया जो कि हर पल याद दिलाता रहता है . . . दिए गए ज्ञान की। 

अब उन्हें लक्ष्मी की कृपा चाहिए। किसी भी तरह। कुछ भी करके। उनका अब तक का अर्जित ज्ञान कह रहा था, लक्ष्य साध कर परिश्रम से पाया गया धन ही लक्ष्मी है, लत लग जाने के कारण येन केन प्रकारेण जो कमाई जाए, वह दौलत है, न कि लक्ष्मी। इस ज्ञान ने उन्हें अब तक दबोचे रखा। कभी एक रुपया रिश्वत न ले सके। दूसरे लेते और प्रोत्साहन देते, तो ज्ञानी जी अपना ज्ञान बघारते। सुनने वाला सम्मान में दोहरा हो कर कहता वाह . . . क्या कहने;  यथा नाम यथा गुण। ज्ञानी जी स्वयम्‌ को अपने ज्ञान के बाजुओं में निढाल छोड़ देते। अब तक तो ऐसा ही चला। अब, लेकिन, उन्हें अपने इस ज्ञान पर कोफ़्त होने लगी है, ख़ासकर जबसे उन्होंने अपने भ्रष्ट सहकर्मियों को ज़िंदगी के मज़े लेते देखा। उन्हें महँगी गाड़ी चलाते देखा। उनकी बीवियों ने इनकी वाली को गहने और महँगी साड़ियाँ दिखा कर तो जैसे चिढ़ा ही दिया। वे अपने ईमानदारी के रास्ते को अब ज्ञान का नहीं बल्कि घाटे का रास्ता समझने लगे हैं। इससे निजात पाना उन्हें ज़रूरी लगने लगा है। वे रात यही सब सोचते हुए सोए थे और उन्हें स्वप्न में बताया गया कि आप ज्ञान जैसी बेतुकी चीज़ को पकड़ कर बैठे हैं;  यही आपके दुःख का कारण है। जितना जल्द हो सके इससे मुक्ति पा लें।  कभी-कभार के लिए ठीक है किंतु इसीको जीवन जीने का ढंग बना लेना बेवकूफ़ी भरा निर्णय है। 

आँख खुलते ही उन्हें लगा, जीवन में नया सवेरा हुआ है। अब तक का अंधकार छँट गया है। उन्हें अब ज्ञान से यथाशीघ्र मुक्ति की आकांक्षा ने घेर लिया है। अपने मूल रूप में आना चाहते हैं। जैसे वे ज्ञान प्राप्ति से पूर्व थे; वे अज्ञानी हो जाना चाहते हैं। उनका ध्यान दीवाली पूजन के समय लक्ष्मी जी के बजाय उनके वाहन उल्लू पर जा कर स्थिर हो गया। अब वे वही हो जाना चाहते हैं।

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