तुम्हें अगर फ़ुर्सत हो थोड़ी
काव्य साहित्य | गीत-नवगीत अनीता श्रीवास्तव15 Nov 2020 (अंक: 169, द्वितीय, 2020 में प्रकाशित)
तुम्हें अगर फ़ुर्सत हो थोड़ी,
मैं भी कुछ कहना चाहूँगी।
ख़ाली समय तुम्हारा पा कर,
मैं उसमें रहना चाहूँगी।
1.
स्मृतियों के शयन कक्ष के,
हुए अधखुले से दरवाज़े
जाने कहाँ बजा करते हैं,
मधुर मिलन बेला के बाजे
टोह तनिक लेना चाहूँगी।
ख़ाली समय . . .
2.
दबी कसक का एक बबूला,
हलक़ में आन फँसा हो जैसे।
क्रूर नियति ने अपना पंजा,
गर्दन घेर कसा हो जैसे।
उच्छ्वास भरना चाहूँगी।
ख़ाली समय . . .
3.
श्वासें लेकर मुझसे मेरे,
दिन जिस ओर चले जाते हैं।
पंछी आ कर उसी ओर से,
आशा दीप जला जाते हैं।
देहरी पर धरना चाहूँगी।
ख़ाली समय . . .
4.
देह परे की अभिलाषाएँ,
हर दृष्टि दुर्वासा जैसी
कभी सजल न होने पाएँ,
आँखों की मर्यादा ऐसी।
चुपके से रोना चाहूँगी।
ख़ाली समय . . . . .
5.
ख़ुद को जी लेने की ज़िद पर,
यहाँ ज़िंदगी आज अड़ी है।
कामनाएँ अमरत्व पा गईं,
मौत तरेरे आँख खड़ी है।
थोड़ा सा जीना चाहूँगी।
ख़ाली समय . . .
6.
तितली सा उड़ने वाला मन,
मछली सा है फँसा जाल में।
लहरों की आवाजाही से,
हुआ तरंगित सुप्तकाल में।
नदिया सी बहना चाहूँगी।
ख़ाली समय . . .
7.
गीत अनकहा रह जाता,
पर बोल स्वयं को रच लाए हैं।
नेह-सिक्त जब हृदय हुआ हो,
गूँगे-बहरों ने गाए हैं।
वही गीत गाना चाहूँगी।
ख़ाली समय . . .
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