अथ मुर्दा सम्वाद
हास्य-व्यंग्य | हास्य-व्यंग्य आलेख-कहानी अनीता श्रीवास्तव1 Aug 2021 (अंक: 186, प्रथम, 2021 में प्रकाशित)
कई घंटे हो गए थे। साथ आए लोग ज़मीन पर अर्थी रख किनारे जा कर सुस्ताने लगे थे। एक मुर्दा आगे वाले को लक्ष्य कर बुदबुदाया– कितना समय और लगेगा। उसे कोई जवाब न मिला। मन तो किया जम कर फटकार लगा दे– आख़िर हमें इतना इंतज़ार क्यों कराया जा रहा है? हम यहाँ न तो पार्टी के टिकट के लिए खड़े हैं न कोविड वैक्सीन के लिए, फिर देर क्यों? तभी उसे याद आया वह मुर्दा है। उसे मुर्दों की मर्यादा का पालन करना चाहिए और चुप रहना चाहिए। वो एक बार ग़लती कर चुका है। ये ग़लती उसने ज़िंदा रहते की थी तब उसका धर्म बोलना था मगर वो चुप रहा; लिहाज़ा जीते-जी मुर्दों में गिना गया। जीवितों में उसकी मात्र हेड कॉउंटिंग हुई। उसे याद है पड़ोस में एक मनचला किसी की नई नवेली दुल्हन पर नज़र रखता था। उसकी अंतरात्मा ने उसे 'पिंच' किया– जा, जा कर उस भोले-भाले इंसान को बता दे कि इस नए दोस्त का घर में आना बंद कराए। वो अपनी स्मार्ट बीवी को भी पड़ोसन को समझाने के काम में लगा सकता था। मगर उसने ऐसा कुछ नहीं किया और चुपचाप कांड होने दिया। रिश्वत देने में उसे कभी दिक़्क़त नहीं हुई बल्कि उसका ख़याल था पैसा देने से काम जल्दी होता है तो इसमें हर्ज़ क्या? समूचा तंत्र उसके लिए सुविधाजनक होना चाहिए। बस। उसने अपनी बोलने की शक्ति और अवसर को अपनी स्वयं की सुरक्षा में लगा दिया। इतना सब उसने मन ही मन बड़बड़ाया था पर भावावेग में कहीं-कहीं उसका स्वर पंचम हो गया l इससे पड़ोसी मुर्दे की निद्रा में विघ्न पड़ा।
वह थोड़ा कसमसाया। फिर बोला शट अप। अभी हमारे लिए लकड़ी का इंतज़ाम हो रहा है। लोग कितने परेशान हैं। ट्राई टू अंडरस्टैंड। पहले वाला अब खुल कर बोल सकता था क्योंकि मर्यादा का उल्लंघन दूसरी ओर से हुआ था। वह तो सिर्फ़ रिएक्ट कर रहा था। बोला, "तू मरा कैसे?”
"नक़ली रेमडेसिवीर से," दूसरे ने तटस्थ भाव से कहा।
तब तक तीसरा बोल पड़ा, "नक़ली था तो क्या! कम से कम मिला तो। मुझे देखो न नक़ली मिला न असली।"
पहला, "क्यों?”
तीसरा, "चालीस हज़ार में मिल रहा था। फोन कर के बीवी को समझाया। ऑटो चला कर चालीस हज़ार बड़ी मुश्किल से जोड़ा है। मेरा बीमा भी है। निकलने दे,” कहकर वो भूतिया हँसी हँसा।
अब तक दूसरा मुर्दा उठ कर बैठ गया था। वह अपेक्षाकृत लम्बा जीवन मृत्युलोक में बिता आया था इसलिए अच्छी-ख़ासी समझ और अनुभव रखता था। उसने कुछ श्लोक गा कर सुनाए जिनका आशय सिर्फ़ यह बताना था कि उसे धर्म-अधर्म की समझ है। उसने प्रवचन सा किया, "सौ बरस में एक बार ऐसी विपदा किसी न किसी बहाने से आती है, शास्त्र में लिखा है।"
उन्होंने मुँह खोला ही था कि तीसरा कफ़न फेंक कर बोला, "ज्ञान नहीं पेलने का दादू। आख़िर धर्मात्मा हो कर भी तुझे कोरोना हुआ न! नक़ली इंजेक्शन से तड़प कर मरा न!”
इस बार थोड़ी दूर सोए मुर्दे में हरकत हुई। बोलने वालों में ये चौथा था। बोला, "कोरोना ने एक बड़ा मार्केट खड़ा कर दिया है। सारे बातूनी मुर्दे चौकन्ने हो कर उसका मुख देखने लगे। उसे अपनी वेल्यू समझ में आई तो बक़ायदा लेक्चर के मूड में आ गया– अब देखो कोरोना से बचाव के लिए मास्क और सेनेटाइज़र तो चाहिए ही लेकिन इसके अलावा भी तरह-तरह के काढ़े और घरेलू दवाइयाँ हैं। क्योंकि कोरोना की कोई दवा नहीं है इसलिए ये सब दवाएँ हैं। अगर आप भी कुछ जानते हैं– घरेलू नुस्ख़े से ले कर टोना-टोटका तक, तो उतरिये बाज़ार में। आपके लिए भी सम्भावनाएँ हैं। कुछ नहीं तो मंत्रोच्चार ही कर लें। व्यायाम सिखाएँ। वीडियो बना कर यूट्यूब पर डालें। पैसा कमाएँ। नाम कमाएँ।"
एक मुर्दा तैश में आ गया, बोला, "कोई नाक में तेल डाल रहा है, कोई नीबू निचोड़ रहा है, कोई प्याज़ खाने को बोलता है, किसीने कहा सेंधा नमक जलाओ,” कहते-कहते वो तन कर बैठ गया। अब जो हो सो हो। मुर्दा बोल उठा। ज़िंदा लोगों का दुःख और मौक़ापरस्ती उससे सहन नहीं हो रही थी। पहले वाले ने अबके बहुत देर बाद कुछ पूछा, "तू क्या हार्ट अटैक से मरा?”
"हाँ। मगर तूने कैसे जाना,” चौथा अब आपे में लौट आया था।
पहला बोला, "तू बात करते-करते सेंटी हो गया, इसीसे जाना। तू बातों को दिल पर ले लेता है। अपने इसी स्वभाव के चलते तू दिल का रोगी बना।"
दूसरा वाला काफ़ी देर से चुप था। उसे अपने मौन पर ग्लानि हुई। उसकी आत्मा जो उसके इर्द-गिर्द ही मँडरा रही थी, कान में बोली, ’दिल की बात बोल दे। अब तेरा कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता। जितना बिगड़ सकता था तू ने जीते जी बिगाड़ ही लिया। समाज में हो रहे अन्याय और अनीति के समय चुप्पी ओढ़ कर जिया’। वह मुर्दा चौथे से बोला, "यार सेंटी न हुआ कर। यहाँ कोई किसी का नहीं। मैंने देखा मुझे मरे एक घण्टा भी नहीं हुआ था कि मेरा साला अपनी बहन से बचे हुए दो इंजेक्शन माँग रहा था। वो भी फ़्री में।"
बाक़ी सोए पड़े मुर्दों में से एक वामपंथी टाइप का मुर्दा बोला, "वेक्सीन लगवा लेते तो बच जाते मगर पक्के सिद्धांतवादी थे अड़ गए बोले ’सत्तासीन पार्टी का विरोधी हूँ मतलब हूँ’। आख़िर तक वेक्सीन नहीं लगवाई,” कहते हुए वो रुआँसा हो गया।
मुर्दों के पास कहने को बहुत कुछ था। जीवन्त बोध था उनमें। वे भले ही दुनिया की नज़रों में मृतात्मा थे किंतु थे जागरूक इसीलिए वे अर्थी पर भी जाग रहे थे और बिना अनुशासन तोड़े रुक-रुक कर बोल भी रहे थे। तभी एक ट्रक लकड़ी आई। बग़ल में आती गाड़ी से मीडिया उतरा। एक और जीप से दो सज्जन उतरे और तत्काल एक बैनर तान कर खड़े हो गए। अमुक की ओर से लकड़ी उपलब्ध। क्लिक। तब तक सुस्ताने गए लोग दौड़ कर लपके। अब हर मुर्दे के पास उसका वारिस था। मुर्दों ने कनखियों से एक-दूसरे को देखा। इशारों में ही कहा, "जीवित लोग लकड़ी के साथ फोटू खिंचा रहे हैं। मर जा बे।"
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