अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता सजल

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा यात्रा वृत्तांत डायरी बच्चों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

रेखाचित्र पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

शर्म संसद

बीते दिनों हमारी सोसायटी में शर्म संसद का आयोजन किया गया। लोग अपनी-अपनी शर्म के विषय ले कर आए। विषय में पर्याप्त विविधता देखी गई। एक सज्जन बोले हम धाराप्रवाह अंग्रेज़ी न बोल पाने के कारण शर्मिंदा हैं। हम सर उठा कर जी नहीं पाते। उम्र अधिक नहीं है हमारी, मगर अंग्रेज़ी न झाड़ पाने के कारण उम्रदराज मान लिए गए हैं। हमें अपनी हालत पर शर्म आती है। उनकी इस बात पर सबने हाय हाय की ध्वनि उच्चारी। वे सिर नीचा किए ही मंच से उतर गए। 

अगले वक्ता आए। वे बोले हम अपनी चाय सुड़क कर पीने की आदत के कारण शर्मिंदा रहा करते हैं। सुहागरात को ही पत्नी ने धमका दिया था, "ये जो तुम चाय पीते समय सुड़-सुड़ का संगीत पैदा करते हो यह मुझे क़तई पसंद नहीं। साथ ज़िंदगी बिताना है तो यह आदत फ़ौरन बदलो।" मगर हम आज तलक आदत नहीं बदल पाए। अब तो डर लगने लगा है; कहीं वे हमें ही न बदल दें। सोच कर शर्म आती है। 

सब बोले-कोशिश करो, "सफलता मिलेगी।"

एक बहन बोलीं मेरे घर में किटी पार्टी पर रोक है। हमें साड़ी के अलावा कुछ भी पहनने की छूट नहीं इसीलिए आगे बढ़ते ज़माने में हम पीछे छूट रहे हैं। हमें अपने पहनावे और रहन-सहन पर शर्म आती है। मेरे सास ससुर की चलती है घर में, यह तो ठीक, पर हम उनकी वजह से मॉडर्न नहीं हो पा रहे। हमें हमारे पिछड़ेपन पर शर्म आती है। सभी महिलाओं ने, ’ओह नो!’ कह कर संवेदना जताई। 

ऐसी कई वाहियात बातें थी जिन पर लोग शर्मिंदा दिखे। मगर हैरानी की बात थी कि लोग गर्व करने लायक़ बात पर भी शर्मिंदा दिखे। राष्ट्रीय गर्व पर भी कुछ लोग पंचम स्वर में शर्मिंदा दिखे। ऐसे ही एक सज्जन लज्जा लुटी स्त्री की भाँति मंच पर प्रकटे और बदहवास से बोले, "मैं शर्म से गड़ा जा रहा हूँ। मैंने पिछले पचास से भी अधिक वर्षों से जिसे पूजा जिसकी स्तुति की, आज बताया जा रहा है वह देवता नहीं था। दानव था। मेरी श्रद्धा का हरण हो गया। मेरे जीवन भर के विश्वास पर किसीने विश्वास रिमूवर फेर दिया।"

सबने उन्हें सम्हाला। कहा गया—लोक तंत्र में यह सब होता रहता है। जिसके जो जी में आए कहता रहता है देश आपका दुःख देख रहा है। देश प्रायः देखता रहता है। महानुभाव क़िस्म के लोग देश के देखने को अनदेखा कर देते हैं और अपने फ़ायदे के लिए कुछ न कर पाने की स्थिति में शर्मनाक वक्तव्य दे डालते हैं और देश भर की शर्म का कारण बनते हैं। 

जलपान के दौरान उनकी टिप्पणियाँ चल रहीं थी—हमने इतनी आग उगली मगर शामियाना नहीं जला। चैनल वाले दिखे नहीं। अख़बार वाले फ़ॉर्मल्टी करके चले गए। हमारे अरमां आँसुओं में बह गए। फिर वे सभी यह कहते हुए पंडाल से बाहर निकल गए कि ऐसी शर्म संसद में आ कर हमें शर्म आ रही है। 
 

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

'हैप्पी बर्थ डे'
|

"बड़ा शोर सुनते थे पहलू में दिल का …

60 साल का नौजवान
|

रामावतर और मैं लगभग एक ही उम्र के थे। मैंने…

 (ब)जट : यमला पगला दीवाना
|

प्रतिवर्ष संसद में आम बजट पेश किया जाता…

 एनजीओ का शौक़
|

इस समय दीन-दुनिया में एक शौक़ चल रहा है,…

टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

हास्य-व्यंग्य आलेख-कहानी

कहानी

कविता

लघुकथा

गीत-नवगीत

नज़्म

किशोर साहित्य कविता

किशोर साहित्य कहानी

विडियो

ऑडियो

उपलब्ध नहीं

लेखक की पुस्तकें

  1. बचते-बचते प्रेमालाप
  2. बंदर संग सेल्फी
  3. जीवन वीणा
  4. तिड़क कर टूटना