शर्म संसद
हास्य-व्यंग्य | हास्य-व्यंग्य आलेख-कहानी अनीता श्रीवास्तव1 Feb 2022 (अंक: 198, प्रथम, 2022 में प्रकाशित)
बीते दिनों हमारी सोसायटी में शर्म संसद का आयोजन किया गया। लोग अपनी-अपनी शर्म के विषय ले कर आए। विषय में पर्याप्त विविधता देखी गई। एक सज्जन बोले हम धाराप्रवाह अंग्रेज़ी न बोल पाने के कारण शर्मिंदा हैं। हम सर उठा कर जी नहीं पाते। उम्र अधिक नहीं है हमारी, मगर अंग्रेज़ी न झाड़ पाने के कारण उम्रदराज मान लिए गए हैं। हमें अपनी हालत पर शर्म आती है। उनकी इस बात पर सबने हाय हाय की ध्वनि उच्चारी। वे सिर नीचा किए ही मंच से उतर गए।
अगले वक्ता आए। वे बोले हम अपनी चाय सुड़क कर पीने की आदत के कारण शर्मिंदा रहा करते हैं। सुहागरात को ही पत्नी ने धमका दिया था, "ये जो तुम चाय पीते समय सुड़-सुड़ का संगीत पैदा करते हो यह मुझे क़तई पसंद नहीं। साथ ज़िंदगी बिताना है तो यह आदत फ़ौरन बदलो।" मगर हम आज तलक आदत नहीं बदल पाए। अब तो डर लगने लगा है; कहीं वे हमें ही न बदल दें। सोच कर शर्म आती है।
सब बोले-कोशिश करो, "सफलता मिलेगी।"
एक बहन बोलीं मेरे घर में किटी पार्टी पर रोक है। हमें साड़ी के अलावा कुछ भी पहनने की छूट नहीं इसीलिए आगे बढ़ते ज़माने में हम पीछे छूट रहे हैं। हमें अपने पहनावे और रहन-सहन पर शर्म आती है। मेरे सास ससुर की चलती है घर में, यह तो ठीक, पर हम उनकी वजह से मॉडर्न नहीं हो पा रहे। हमें हमारे पिछड़ेपन पर शर्म आती है। सभी महिलाओं ने, ’ओह नो!’ कह कर संवेदना जताई।
ऐसी कई वाहियात बातें थी जिन पर लोग शर्मिंदा दिखे। मगर हैरानी की बात थी कि लोग गर्व करने लायक़ बात पर भी शर्मिंदा दिखे। राष्ट्रीय गर्व पर भी कुछ लोग पंचम स्वर में शर्मिंदा दिखे। ऐसे ही एक सज्जन लज्जा लुटी स्त्री की भाँति मंच पर प्रकटे और बदहवास से बोले, "मैं शर्म से गड़ा जा रहा हूँ। मैंने पिछले पचास से भी अधिक वर्षों से जिसे पूजा जिसकी स्तुति की, आज बताया जा रहा है वह देवता नहीं था। दानव था। मेरी श्रद्धा का हरण हो गया। मेरे जीवन भर के विश्वास पर किसीने विश्वास रिमूवर फेर दिया।"
सबने उन्हें सम्हाला। कहा गया—लोक तंत्र में यह सब होता रहता है। जिसके जो जी में आए कहता रहता है देश आपका दुःख देख रहा है। देश प्रायः देखता रहता है। महानुभाव क़िस्म के लोग देश के देखने को अनदेखा कर देते हैं और अपने फ़ायदे के लिए कुछ न कर पाने की स्थिति में शर्मनाक वक्तव्य दे डालते हैं और देश भर की शर्म का कारण बनते हैं।
जलपान के दौरान उनकी टिप्पणियाँ चल रहीं थी—हमने इतनी आग उगली मगर शामियाना नहीं जला। चैनल वाले दिखे नहीं। अख़बार वाले फ़ॉर्मल्टी करके चले गए। हमारे अरमां आँसुओं में बह गए। फिर वे सभी यह कहते हुए पंडाल से बाहर निकल गए कि ऐसी शर्म संसद में आ कर हमें शर्म आ रही है।
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