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ग़रीब की रजाई

नाक चुआउ ठंड में, जिनके पास हीटर ब्लोअर जैसी धरती पर स्वर्ग उतारने वाली सुविधाएँ हैं, वे अख़बार के इस हिस्से पर, जहाँ यह व्यंग्य छपा है, चाय का कप रख कर बग़ल में छपा कुछ भी पढ़ कर हैप्पी विंटर फ़ील कर सकते हैं। जिनके पास यह सुख नहीं है वे अख़बार से दूर हो कर भी अख़बार की नज़र में रहते हैं। क्योंकि उनका दुःख उस व्यक्ति के लिए कच्चा माल सरीखा है जो संवेदनशील है। सम्मानजनक तरीक़े से कोई इसे प्रेरणा या परकाया प्रवेश वग़ैरह कह सकता है। एक बुद्धिजीवी इसी तरह टाइम पास करता है। 

यूँ तो मुझे रजाई के अवलोकन का कोई शौक़ नहीं। और ग़रीब के अवलोकन का तो बिल्कुल ही नहीं। यक़ीन न हो, तो आप, मेरा समूचा साहित्य देख डालें। मजाल है कि मैंने ग़रीब और रजाई को कभी क़लम की नोक भर भी छुआ हो। मेरे लेखन का पचास प्रतिशत (मैं गणित में तैंतीस अंक पर संतोषी रही, कभी अधिक की लालसा न रखी, इसके आलोक में समझें) बड़े लेखकों के स्तुतिगान में ही खप गया। इसमें कुछ भी ग़लत नहीं। दरअसल अच्छा लेखन उनके इस क़दर अधीन है कि अपने लिखे को भी उसके छींटों से पवित्र कराना ज़रूरी लगता है। 

नहीं होगा जी विषयांतर . . . तो ग़रीब की रजाई में क्या ख़ास है! उसके पास रजाई होना ही ख़ास है। पर अभी जिस ख़ासियत की बात हो रही है वह ग़रीब की रजाई तो है, मगर उसके पास नहीं है। डिवाइडर पर बैठा है भुक्खड़। पूरे परिवार की भुक्खड़पनी को साथ लिए। उसे आज भी काम चाहिए जबकि पूरा इलाक़ा कोहरे की लपेट में सफ़ेद धोती में दुबकी बैठी बुढ़िया की भाँति ढँका-मुँदा है। सबको इस जानलेवा ठंड में केवल गर्मी चाहिए, मगर सपरिवार भूख के मोर्चे पर तैनात इस ग़रीब को काम चाहिए। रोज़ की ज़रूरतों के लिए दाम चाहिए। अपने चुकने तक वह इसे चुकाते रहना चाहता है। फटे स्वेटर और सूती चादर के साथ निकल पड़ा घर से . . . माफ़ कीजिए, झोपड़े से। सामने से फर्र-फर्र गुज़रते वाहनों से वह उम्मीद करता है, कोई रुके और कहे ‘लेबर चाहिए।’ लेकिन नहीं चार या दो पहियों के बल रेंगते वे वाहन, बेवफ़ा प्रेमिका की भाँति दिल जलाते हुए चुप्पचाप निकल जाते हैं। आदमी जब उम्मीद से (रोज़ी की) हो तो बदक़िस्मती इसी तरह नाउम्मीद करती है। 

अपने तरफ़ ग़रीब का हर मामला क़िस्मत के अधीन है। उसके वोट का दोहन करने और कम्बल दे कर फोटू खिंचाने वाले भी उसकी उम्मीद और नाउम्मीदी के बीच नहीं आते। बरक कर निकल जाते हैं। 

इस आवाजाही से आए ठंडी हवा के झोंके से बचने के लिए ग़रीब अपनी सूती चादर को हाथ भर फैला कर, फिर कस कर लपेटता है। इस उपक्रम में बाहर गई गर्मी के बदले थोड़ी ठिठुरन उसे गलाती है। तो क्या! इत्ती सी गलन में वह गल थोड़े ही जाता है! 

दुनिया काँप रही है। ग़रीब काँप रहा है। मगर दोनों में अंतर है। दुनिया ठंड से काँप रही है; ग़रीब भूख से। या शायद ठण्ड और भूख दोनों से काँप रहा हो। विकट समय है। सरकारों को ग़रीबों की इन उलूल-जलूल हरक़तों ने ही परेशान किया है। इनका भूख से मुक़ाबला, ठंड से मुक़ाबले पर भारी पड़ रहा है। वह ख़ुद भी इन दो की चपेट में हलकान है। वैसे मुफ़्त भोजन की व्यवस्था है नगर में, मगर ग़रीब ख़ैरात नहीं चाह रहा, कुछ आत्मसम्मान वग़ैरह का रोग पला हो सकता है उसे। 

उधर फर्र फर्र अपनी गाड़ियों में घूमने वाले अपनी रात रजाई के आग़ोश में मिटाते हैं। दिन ढलते ही वे अपने घर के गरम कमरे में होते हैं। गरम-नरम बिस्तर में सोते हैं। उनकी रजाई गरमाती बहुत है। शायद ग़रीब की आहें भरी हैं उसमें। वह भी शस्य श्यामला धरती का लाल है। सोचती हूँ भारत जब सोने की चिड़िया था तब उसकी भी मिल्कियत वह चिड़िया रही होगी। भाइयों ने, बाद में चिड़िया को ग़रीब अमीर में बाँटा होगा। चिड़िया फुर्र से उड़ कर अमीर के कन्धे पर बैठ गई होगी। ग़रीब तभी से प्रतीक्षा में है। 

सुबह, ग़रीब जिन बच्चों को नाक बहाते थोड़ी सी जलावन के भरोसे छोड़ कर आया है, उनकी देह का ताप भरा है। ख़ुद मेरी इस रजाई में, मुझे लगता है उस ग़रीब की रक्त, अस्थि, मज्जा भरी होगी; तभी इतना गरमाती है। तभी मेरी पवित्र आत्मा कह रही है—तुझे ठंड से मरना चाहिए। पाप कटेगा।

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