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वैलेंटाइन डे

उसके हाथों की छुअन आज भी फाहे जैसी है। कोमल भावनाओं के फाहे, जो प्रेम से उपजी हृदय की तरलता को अपने में सोख कर नरम-गरम हो गए हैं। माथे पर अंगुलियों का जादुई स्पर्श पा कर शरद ने आँखें खोल दीं। कुछ कहना तो नहीं था फिर भी मौन को तोड़ने की ग़रज़ से कहा, "बाहर धूप दिखने लगी क्या?"

"अभी नहीं। अभी तो दिन भी ठीक से नहीं निकला।"

"कितना बजा?" शरद ने बात को आगे बढ़ाया।

"साढ़े सात," अंदाज़न गौरी ने कह दिया।

उसकी गोरी बाँहों पर काली स्लिवस् का गाउन आज भी जवां दिलों में बिजली की तरंग दौड़ा दे। अपनी सपनीली से पनीली हो आई आँखों पर चश्मा लगा कर गौरी पेपर पलटने लगी।

"कुछ ख़ास छपा है क्या? बड़े ध्यान से पढ़ रही हो!" शरद को कुछ तो कहना था। 

गौरी ने एक पन्ना निकाल कर शरद की ओर बढ़ा दिया। अब दोनों ही अख़बार के सुपुर्द हो गए थे। 

सालों पहले वे सेमिनार में मिले थे। दोस्ती का हाथ बढ़ाने के बाद इसी तरह वे एक-दूसरे के सुपुर्द हो गए थे। दबे पाँव उनके मन के चंचल घोड़े उनके विचारों को लाँघते हुए हृदय के निषिद्ध क्षेत्र में पहुँच गए थे, वहीं, जहाँ वे चुपचाप एक दूसरे के सुपुर्द होते चले गए थे। वे मिले। बार-बार मिले और फिर एक बार उन्हें लगा कि अब इस तरह मिलना चाहिए कि बिछड़ने की गुंजाइश ही न रहे। विवाह के बाद वे जिस घर में रहने आए थे वो काफ़ी छोटा था। उन दोनों के ही पैतृक घरों से छोटा। उस घर में एक खिड़की थी जो सड़क तरफ़ खुलती थी। गौरी ने सड़क तरफ़ की खिड़की को हमेशा खुला रखा। वहाँ से वह शरद को तब तक जाते हुए देखती थी जब तक वह एक बार मुड़ कर हाथ न हिला दे। मिलने से पहले और जुदा होने के बाद के सारे संवाद इसी खिड़की से होते थे। वो खिड़की उनके दाम्पत्य जीवन का अभिन्न अंग बन गई थी। शाम को गौरी इसी खिड़की से दूर तक टोह लेती फिर घड़ी की ओर नज़र घुमा लेती। 

"अरे कहाँ चल दिए?" उस दिन ऑफ़िस से आते ही शरद किचिन की ओर जाते दिखे।

"चाय बनाने। आज चाय मैं बनाउँगा," शरद ने अपना इरादा बताया।

"मैं किस लिए हूँ?" गौरी हैरान सी उसके पीछे चलने लगी।

"तुम हर दिन चाय बनाती हो। तुम क्या चाय वाली हो!" शरद ने अब तक चाय का पानी गैस पर चढ़ा दिया था।

"चाय वाली नहीं। घर वाली हूँ," गौरी ने शरद का बाजू पकड़ कर उसे अपनी ओर घुमाया।

"डरो मत ज़्यादा बुरी नहीं बनाऊँगा," शरद ने छेड़ा और वापिस घूम गया। 

बच्चों के जन्मदिन की पार्टी में घर सजाना हो या जन्माष्टमी पर कृष्ण जन्म की तैयारी, वे दोनों उत्साह से मनाते। इसी तरह कब बच्चे बड़े हुए और अपने जीवनसंगी संग दूर देश उड़ गए। जीवन एक सीढ़ी ऊपर चढ़ गया। इस बीच शरद और गौरी अपने बड़े से घर में छोटी-सी दुनिया ले कर आ बसे। 

अब त्योहारों पर वीडियो कॉल हो जाते हैं। आठ माह से शरद बिस्तर पर है। पैरालिसिस का अटैक आया था। भला हो उसके डॉक्टर भाँजे का जो वक़्त पर अस्पताल ले गया और ऊपर का हिस्सा लकवे के प्रभाव से बचा रह गया। दोनों बेटे विदेश में थे। वे हाल पूछते रहे। यहाँ अस्पताल से डिस्चार्ज हो कर आने के बाद से गौरी की ज़िंदगी एकदम बदल गई। शरद की देखभाल और बिस्तर पर ही सारे काम। मगर उसने इस बदली हुई परिस्थिति को शरद के निकट रहने का एक बहाना मान लिया है। 

आज सुबह रोज़ की तरह अख़बार उठाया तो 'वैलेंटाइन डे' के एक लेख पर नज़र पड़ी। उसे याद आई वे दोनों इस दिवस के अपनी संस्कृति में महत्व को ले कर अक़्सर उलझ पड़ते थे। गौरी का मानना था चाहे जो हो ये हमारी संस्कृति नहीं है। शरद का विश्वास था समय के साथ आए बदलाव को स्वीकार कर लेना चाहिए, ख़ासकर जब वह जीवन में उमंग भरता हो।

किचिन में जा कर उसने चाय बनायी। फिर जाने क्या सूझी दूसरी ओर धीमी आँच पर खीर चढ़ा दी। शरद को विशेष अवसरों पर खीर के बिना मज़ा नहीं आता। इधर बीमारी के बाद से पसंद नापसन्द को मुद्दा बनाना उसने छोड़ ही दिया था। गौरी जब भी उसकी ओर झुकती उसकी आँखों में ज़माने भर की उदासी दिखाई देती। अभी-अभी उसे नित्य कर्म से फ़ारिग़ कराया अब नाश्ते की बारी है।

सामने खीर की कटोरी देख शरद ने गौरी को आश्चर्य और उदासी से देखा अपने सुन्न हो चुके पैर को दोनों हाथों से थोड़ा हिलाया। बस इतना कहा, "आज14 फरवरी है। छोटू की शादी की तीसरी सालगिरह। इसीलिए तुम इतनी ख़ुश हो और खीर भी बनाई है।"

"नहीं।" गौरी ने खीर का पहला निवाला चम्मच से शरद के मुँह में डालाऔर बड़ी मुश्किल से बोल पाई, "आज वैलेंटाइन डे है।"

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