अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता सजल

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा वृत्तांत डायरी बच्चों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

रेखाचित्र पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

कुछ ख़ास नहीं . . . 

मुझे उनका सुमिरन हो आया जो वास्तव में गुरु हैं। उनके वंदन के साथ, मैं इस पेचीदा आलेख का पहला अनुच्छेद लिख रही हूँ। लीजिए संकल्प के साथ ही पहला पेंच सामने है। तय नहीं हो पाया कि क्या कहा जाय गुरु या गुरू। मगर अंतर कुछ ख़ास नहीं है। कुछ विद्वान पहले वाले को सही मानते हैं कुछ दूसरे को। इस तरह विद्वानों ने स्वयं अधिक से अधिक लोगों को विद्वान बनने का अवसर प्रदान किया है। 

अज्ञानी मित्रो! मुझे शिष्यत्व की प्राप्ति न हो सकी। मैं नहीं चाहती किसी और की ऐसी गति हो। अब कोई यह न कहे कि आपके चाहने न चाहने से क्या होता है? बिल्कुल होता है। जहाँ चाह वहाँ राह का जुमला यूँ ही नहीं बना है। यह इस बात की ताकीद है कि देश में मीलों लम्बी सड़कें बनी हैं तो चाह भी इन्हीं की तरह है ही। ख़ैर किसीका जीवन गुरु विहीन हो . . . समाज गुरु विहीन हो . . . संसार में गुरु न हो, यह सचमुच हीनता की बात है। इतनी बड़ी हीनता को आप हल्के में मत लीजिए। इसके चलते भारत विश्व गुरु कैसे बनेगा! आप ही बताएँ? अगर भारत को विश्व गुरु बनाना है तो हम सबको गुरु बनाना होगा . . . ज़ाहिर है, किसी न किसी को बनना भी होगा . . .। देश प्रेम के इस उदात्त भाव के चलते, सभी गुरु खोज रहे हैं। कलाकार, क़लमकार, अभिनेता, राजनेता, अध्येता . . . सबको गुरु चाहिए। माँग ज़्यादा। आपूर्ति कम। इस संकट से देश को कैसे निकाला जाए? मैंने दिमाग़ पर ज़ोर डाला। क़िस्मत से डल भी गया। हल निकल भी गया। अपनी ओर से जैसा भी और जितना भी हो सके राष्ट्र निर्माण के इस नेक काम में योगदान देना मैंने अपना कर्तव्य समझा है। वैसे एक और कड़ी भी इसी में जुड़ती है। मैं कई दिनों से परमार्थ का कोई काम हथियाना चाह रही थी ताकि जीवन सार्थक हो जाए। अपने लिए जीए तो क्या जीए! ऐ दिल तू जी ज़माने के लिए। मैंने तय किया मैं संसार में चल रहे गुरु के क्राइसिस पर काम करूँगी। नैतिकता कहती है हर काम की शुरूआत स्वयं से होनी चाहिए लिहाज़ा मैं अपने आप को गुरु घोषित करती हूँ। जिस किसी भी आम या ख़ास को, आवश्यकता हो मैं गुरु बनने को प्रस्तुत हूँ। इसके लिए आपको कुछ ख़ास नहीं करना है। मैंने भी नहीं किया। यह 'कुछ ख़ास नहीं' ही अपनी विधा है। अगर आप भी इसी विधा के हैं तो आपका स्वागत है। 

विगत दिनों मेरी इसी उद्देश्य को समर्पित संस्था का उद्घाटन हुआ एवम्‌ हमने अपना ध्येय वाक्य रखा गुरु बनाएँ। 'कुछ ख़ास नहीं'। इस छोटे से ज़िले में बड़ी संख्या में ऐसे लोग निकल आए जो कुछ कर दिखाने के उत्साह से भरे हुए थे। उनके अवनत ललाट तिलक को आतुर अंगुलियाँ खोज रहे थे। भिन्न विधाओं के थे लिहाज़ा मुझे उनकी विधा जानना ज़रूरी लगा। 

मैंने उनसे पूछा, “आप क्या करते हैं?” 

वे बोले, “कुछ ख़ास नहीं . . . बस, थोड़ा नाम वग़ैरह हो जाए।” 

“आपकी विधा कौन सी है?” 

“सभी। हें हें हें . . . विधाओं में कुछ भेद अपुन रखतेइ नहीं।” 

“फिर भी किसी में विशेष रुचि तो होगी?” 

“नहीं, ऐसा कुछ ख़ास नहीं।” 

“आपका क्या उद्देश्य है जीवन में?” 

“कुछ ख़ास नहीं।” 

“कहाँ तक सीख चुके हैं?” 

“कुछ ख़ास नहीं।” 

मैं समझ गई यह आदमी तो मेरी ही विधा का है। मुझे यह देख कर ख़ुशी हुई कि अधिकांश लोग मेरी ही विधा के थे—कुछ ख़ास नहीं। मैंने उन सबको एक साथ लिया और जन जागरण के काम में लग गई। शुरू में कुछ विशेषज्ञ सरीखे लोग मिले। वे विधा पर विचार विमर्श के पक्षधर दिखाई पड़ते थे। मैंने अपने शिष्यों को सावधान किया कि इनसे उलझना ठीक नहीं। समय बर्बाद होगा। 

इधर मेरी विधा के अनुयायी दिनोंदिन बढ़ते जा रहे हैं। फ़ेसबुक, इंस्टा, लिंकडिन पर लोग मेरा ग्रुप जॉइन कर रहे हैं। जल्दी ही मेरी संस्था वैश्विक पहचान बना लेगी। मुझे आशा ही नहीं वरन्‌ विश्वास है . . . जैसा कि कहने का रिवाज़ है, मुझे इस विधा का प्रवर्तक माना जाएगा। मैंने अपने निकट संबंधियों से कह दिया है भविष्य में वे “कुछ ख़ास नहीं” को आगे बढ़ाएँ। अपने लड़के-लड़कियों को इसका महत्त्व समझाएं (मेरे तो समझते नहीं)। इस पर पीएच. डी. कराएँ। ताकि साहित्य में मुझे ठीक-ठाक स्थान मिल सके। तो देखा आपने मैंने एक तीर से दो निशाने साधे। आप निर्गुरु को गुरु उपलब्ध कराया, साहित्य सेवा करते हुए उसे एक नवीन विधा प्रदान की और देश को विश्व गुरु बनाने में अपना योगदान दिया। तीन हो गए मगर मैंने विनम्रतावश इन्हें दो ही कहा।

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

'हैप्पी बर्थ डे'
|

"बड़ा शोर सुनते थे पहलू में दिल का …

60 साल का नौजवान
|

रामावतर और मैं लगभग एक ही उम्र के थे। मैंने…

 (ब)जट : यमला पगला दीवाना
|

प्रतिवर्ष संसद में आम बजट पेश किया जाता…

 एनजीओ का शौक़
|

इस समय दीन-दुनिया में एक शौक़ चल रहा है,…

टिप्पणियाँ

मधु 2022/05/14 01:29 AM

अनीता जी, स्वयं को 'ख़ास' कहने वाले कितने ही गुरुओं को मैंने सुना व देखा, लेकिन उनमें 'कुछ ख़ास नहीं' पाया। और आपने यह जो 'कुछ ख़ास नहीं' संस्था खोली है, इसमें कुछ 'ख़ास' नज़र आ रहा है। अब तुरंत अपने शिष्यों से यह वादा कीजिए कि नाम कमाने के बाद आप भी स्वयं को 'ख़ास' घोषित नही करेंगी। शुभकामनाएँ।

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

हास्य-व्यंग्य आलेख-कहानी

कहानी

कविता

लघुकथा

गीत-नवगीत

नज़्म

किशोर साहित्य कविता

किशोर साहित्य कहानी

विडियो

ऑडियो

उपलब्ध नहीं