नेतागिरी करते बादल
हास्य-व्यंग्य | हास्य-व्यंग्य आलेख-कहानी अनीता श्रीवास्तव1 Aug 2022 (अंक: 210, प्रथम, 2022 में प्रकाशित)
नेतागिरी करते बादल री सखी! काले कजरारे मेघ बरसने चाहिए थे। सब तरफ़ से बरसने की ख़बरें आ रही हैं। यहाँ हाल यह है कि टीवी न खोलें और अख़बार न देखें तो पता ही नहीं चलता कि वर्षा ऋतु लगी है। जब-तब बादल दिख जाते हैं मगर वे भी नेताई चाल-चलन अपनाए हैं। उमड़-घुमड़ कर वादा तो करते हैं लेकिन बरस-बरस कर निभाते नहीं। प्रदेश भर में इनके दौरे हो रहे हैं। मेंढक टर्राने को मुँह बाए बैठे हैं। छाते, घरों में उल्टे लटके हैं। गृहणियाँ बेसन घोल कर खिड़की से बाहर ताक रहीं हैं। बादल बरसें और वे भजिए बनाएँ। बरखा रानी की अगवानी करने को सभी डेढ़ टाँग पर खड़े हैं। मगर उनकी ऐसी बेरुख़ी नई तो नहीं!
इधर सरकारी मुलाज़िम भी परेशान हैं। इनकी मुसीबत अलग तरह की है। सोचते हैं अच्छा बरस जाए तो छुट्टी का बहाना मिले। आख़िर मौसम भी कोई चीज़ है कि बस काम ही काम करें! खुर्राट अफ़सरों को बता दिया जाएगा कि अगर मूसलाधार बारिश में भी काम पूर्ववत होता रहा तो इसे बरखा रानी अपनी उपेक्षा मानेगी और लंबे समय के लिए रूठ जाएगी जिसके ज़िम्मेदार आप होंगे। क्या देश क्या परदेश आप पर तो ग्लोबल लेवल पर पर्यावरण को क्षति पहुँचाने का आरोप लगेगा।
दो दिन पहले का क़िस्सा है। एक प्रेमी जोड़ा, फुहार में घर से निकल, मोटर बाइक पर भीगना चाहता था। बादल छाए तो दोनों ने मोबाइल पर अपने-अपने घरों की छत से मौसम का हाल टाइप फोटो, एक-दूजे को भेजा। क़िस्मत ख़राब थी बेचारों की, वे बहाना बना कर और कपड़े बदल कर निकलने ही वाले थे कि बदली खिसक गई। उसकी जगह धूप चमकने लगी। वे नर श्रेष्ठ फिर भी हार नहीं माने। वे सकरात्मक सोच की गिरफ़्त में थे जो कि सिचुऐशन वाइज़ स्वाभाविक भी है। हिम्मत करके बरसाती जूता-चप्पल खोजने लगे। वे उन्हें पहन ही रहे थे कि धूप का एक टुकड़ा चटाक से एक के गाल पर पड़ा और उसने मूड ऑफ़ होने की ख़बर अपने जोड़ीदार को दे दी। तो ये बादल-बरखा वग़ैरह मेघदूत के बाद से लगातार भरोसा खोते आ रहे हैं। हाल के वर्षों में इनकी कथनी और करनी में ज़मीन-आसमान का अंतर आ गया है। ज़मीन तक ये बरखा सेंड करें इसके पहले ही आसमान के राजा सूर्य देव इन्हें थपड़या कर भगा देते हैं। अब आप सतर्क रहें और अपने किसी ज़रूरी काम के लिए इनके भरोसे न बैठें। खेतों में किसान बैठा और बोवनी में लेट हो गया। बरसा भी, तो पकी फ़सल पर और उसे बर्बाद किया। मतलब एक तो ये बरखा के ‘ओनर’ सरीखे बादल देर से आएँगे, दूसरे उत्पात मचाएँगे।
अगर बादल बोल सकते तो बताते कि उनका मिज़ाज क्यों बदला। क्यों वे नेता टाइप हो गए हैं? जिस तरह नेता हमारे चुने गए प्रतिनिधि हैं उसी तरह पेड़-पर्यावरण आदि को मटियामेट करके हमने बादलों का यह रूप चुना है। न बरसे बादल, न भरे घर के आगे पोखर, न चले उसमें नाव; तो दोष किसका! अपना ही है चुनाव। अभी भी सुबह का भूला टाइप शाम को घर लौट आए, ख़ूब पेड़ लगाए, जंगल बचाए। दूसरों को बरजे, ख़ुद भी बाज़ आए। तो बरखा रानी मेहरबान हो जाएँ। समय पर आएँ और वादा निभाएँ। अब चलूँ, काम पड़े हैं। आप तो बातों में लगा लेते है।
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