दूर के मज़दूर
कथा साहित्य | कहानी अनीता श्रीवास्तव15 May 2020 (अंक: 156, द्वितीय, 2020 में प्रकाशित)
"काए का कह रए?" कह कर बाबूलाल अपने अज़ीज़ दोस्त का मुँह देखने लगा। दोस्त, जिसे सभी हल्के कहा करते थे, स्कूल का नाम कुछ और होता, अगर गया होता! हल्के ने बक्से से सटते हुए कहा, "हम का बताएँ भैया! कछू समझ में नहीं आ रही।"
"गौरमेंट कहत ही हम देब दुइ टेम भोजन पानी। जौन जहाँ हौ तहाँ रुको," बिहार के टिमकली से आए विशुन देव ने थूक उचटाते हुए कहा।
बाबूलाल ने दूर हटते हुए, सोशल डिस्टेंसिङ्ग का पालन करते हुए बोला, "तुमने कितै सुन लई।"
हल्के ने दोनों टाँगें ज़मीन पर पसार लीं। हाथ गर्दन के पीछे जोड़ कर तकिया बना लिया फिर बोला, "सब तौ दिखा रए न्यूज में।"
इतने में उसे कुछ याद हो आया, उसने जेब में हाथ डाला और मोबाइल निकाला। यूट्यूब पर न्यूज़ चैनल खोला और देख कर बताने लगा। कुछ समय पहले का वीडियो पड़ा था। एंकर, फ़ुल वॉल्यूम पर चीख़ रही थी, "जो लोग जहाँ हैं वे वहीं रहें। हमारी मुहिम है हैश टैग घर पर रुकें सोशल मीडिया,फ़ेसबुक और ट्विटर पर हमें फ़ॉलो करें। अगर आप बाहर से आए हैं तो अपनी जाँच कराएँ और अपने आप को सेल्फ़क्वारेण्टार्ईन करें।"
तीनों उसके मोबाइल पर झुक गए। इसी तरह पूरे रैन-बसेरा में चार-चार, छह-छह के गुट बने हुए थे और सभी इस विपत्ति के समय में समाचारों पर नज़र रखे हुए थे। थोड़ी-थोड़ी देर में मोदी जी की अपील गूँजने लगती, “मैं सभी देशवासियों से आग्रह करता हूँ लॉकडाउन का पालन करें। कोरोना से जीतने के लिए आप घर पर रहें। मैं एक और....…”
पास ही एक और गोला बना हुआ था। चार-पाँच लोग थे । कुछ की पीठ पर पिट्ठू बैग तो कुछ के पास किराना वाले और पुरानी पैंट के बने झोले थे।
"और तो सब ठीक है। कोरोना चीन की भेजी मुसीबत आय मनो जा बताओ जे डाक्टर सा'ब का कै रए.." सागर ज़िले के मालथौन से आए रामदीन ने अपनी छोटी आँखें सिकोड़ कर और छोटी कर लीं। जब-जब डॉक्टर कोरोना से बचने के उपाय बताता रामदीन इसी तरह आँखें छोटी कर लेता जैसे कि अपनी छिन्न-भिन्न एकाग्रता को एक बिंदु पर केंद्रित करने का प्रयास कर रहा हो। इस बार तो उसने संकोच त्याग कर अपने दोस्त छक्की से बोल ही दिया, "वहाँ चलो....एक तरफ।”
उसने अपेक्षाकृत कम शोर-शराबे वाली उस जगह पर अपने साथी को ले जाकर मोबाइल में चल रहे समाचार को पूरी क्षमता से सुना आँखें इस दफ़ा उसने छोटी नहीं अपितु पूरी बंद ही कर लीं। मोबाइल कान पर धर लिया। डॉक्टर सा'ब फिर वही अबूझ से लगने वाले शब्द बोल रहे थे, "सोशल डिस्टेंसिङ्ग बहुत ज़रूरी है। बार-बार हाथों को बीस सेकंड तक धोएँ या एल्कोहोल बेस्ड सेनेटाइज़र का इस्तेमाल करके हाथों को साफ़ रखें। मास्क पहनें। यात्रा करके लौटे हैं तो ख़ुद को सेल्फ़क्वारेन्टीन करें।"
उधर लच्छू और उसकी पत्नी भी आँखें गड़ाए बैठे थे। सरकारी पाठशाला में आठवीं तक पढ़ी फूला भी कान चढ़ा कर सुन रही थी।
और तो और बसेरा में रखे पुराने टीवी में भी यही सब दिखाया जा रहा था। सब अपन-अपना मोबाइल छोड़ टीवी देखने लगे। दिल्ली के मुख्य मंत्री प्रगट हुए तो सबके मन में आस जगी। देखें क्या इंतज़ाम किया है। वे बोले, "हमने दो हज़ार आइसोलेशन वार्ड बनाए हैं। किसी भी तरह की स्थिति से निपटने के लिए दिल्ली तैयार है।" फिर बिहार के मुख्यमंत्री ने भी कुछ इसी तरह बोला।
सब देखने सुनने के बाद हल्के, रामदीन,लच्छू और बाबूलाल आदि ने सलाह-मशवरा किया। फिर जल्दी-जल्दी अपना सामान उठाया और लपक कर बस में चढ़ गए। वे लॉकडाउन का मतलब समझ गए थे क्योंकि उसके तुरन्त बाद घर में रहें बोला जाता था। फिर भी वे परेशान थे इतने या उतने करोड़ की सरकारी राहतें, अमीरों, उद्योगपतियों और फ़िल्म-जगत व खेल-जगत के सितारों का महादान आख़िर जा कहाँ रहा है? बड़े-बड़े देगचों में सब्ज़ी और भात पकाते ये लोग आख़िर हैं कहाँ? हमें तो चाय डबल-रोटी के सिवाय कुछ मिला नहीं।
बसों में ठूँस कर ये मज़दूर और उनके परिवार भरे गए। ऐसी ढाई सौ बसें अलग-अलग समय में रवाना हुईं।
बाबूलाल और हल्के जब बस से उतरे तो मास्क के पीछे आधा चेहरा छुपाए कॉन्स्टेबल बहादुर सिंह से उसका सामना हुआ। बहादुर सिंह ने देखते ही उन्हें पहचान लिया, बोला, "वहीं रहते तो मर नहीं जाते।"
दो दिन के भूखे हल्के ने जवाब दिया, "भूख से मरें कि कोरोना से, जई सोचत-सोचत चले आए। अब हमें घरै जान दो।"
बहादुर ने शिविर की तरफ़ इशारा किया और बोला, "चलो पहले जाँच कराओ। चौदह दिन शिविर में रहो। सब ठीक रहा तो फिर देखना घर का मुँह।"
बाबूलाल को झटका लगा, "हैं.....जासें तौ हम वहीं अच्छे हते।"
"क्यों नहीं रुके रहे वहीं?" बहादुर ने डंडा नचाया। और आगे बोला, "सब तो बताया जा रहा न्यूज में। नहीं देखा क्या?"
इधर हल्के सोच में पड़ गया, सुना तो था, मगर जाने क्या बोलते हैं.... कोरेन्ट.... इन..... सोश...ल...डिस्टें...पता नहीं, क्या-क्या?
ठीक इसी तरह की परिस्थिति का सामना मध्य प्रदेश के दूसरे ज़िलों के साथ-साथ, उत्तर प्रदेश, गुजरात और बिहार आदि राज्यों में पहुँचे मज़दूरों को भी करना पड़ा। वे राह के कठिन संघर्ष के बाद भी घर पहुँचने का सुकून न उठा सके। सबको कवरेन्टीन किया गया। जब-जब ये अनोखे शब्द उनके ज़ेहन में गूँजते, एक और पीड़ा उनके हृदय में उभर आती। यह पीड़ा भूख, थकान और कोरोना के भय की पीड़ा से भी बड़ी थी। वे भीतर ही भीतर घुट रहे थे, किसी से कह नहीं सकते थे। डर था कि यदि कहा तो अपनी जाँघ उघाड़ना; अपनी लाज गँवाना न बन जाए। जग हँसाई न हो जाए। काश कोई होता.… जो कह देता एक बार, ये छूत की बीमारी है, दूर-दूर रहें। काश कोई इतना बोल देता। अँगुलियों के पोरों में, चमड़ी की सिकुड़नों में, नाखूनों में न दिखने वाले विषाणु रहते हैं। कोरोना फैलाने वाला भी इसी यहीं छुपा रहता है।
अगर समझ आ जाता तो कितने ही दिहाड़ी मज़दूर सर पर पैर रख कर भागने से बच जाते। वे समझ कर वहीं रह कर अन्य विकल्प तलाशते। मगर ग्लैमर से भरे-पूरे मीडिया को ये याद ही नहीं रहा कि अपने घरों से महानगर में दिहाड़ी करने आए ये मज़दूर इंग्लिश मीडियम स्कूलों में नहीं पढ़े हैं। इनसे इनकी भाषा मे बोल दिया जाता। काश उन ज़रूरी शब्दों को देशी तरीक़े से कहा जाता। चकाचौंध से भरे संचार-प्रचार तंत्र ने इन मज़दूरों को अपने से दूर का मान लिया या ख़ुद को इन से दूर कर लिया।
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