जब पुराना वर्ष जाने से इनकार कर दे
हास्य-व्यंग्य | हास्य-व्यंग्य आलेख-कहानी अनीता श्रीवास्तव15 Jan 2024 (अंक: 245, द्वितीय, 2024 में प्रकाशित)
अड़ कर बैठ गया है। जाने का नाम नहीं ले रहा। जो पता होता कि ये इतना अड़ियल निकलेगा, तो आने ही न देते। हम न्यू ईयर मनाने को तैयार हैं। मतलब हमारी ओर से तैयारी पूरी है। मुसीबत यह है कि पुराना साल जाने से इनकार कर रहा है। मैंने विनती की कि भैया जाओ ना! नए वाले को आना है। जगह ख़ाली करो भाई। किन्तु पुराना, साल टस से मस नहीं हो रहा। टका सा जवाब है उसका कि पहले मेरा सामान लौटाओ। सामान जो उसने गिनाया उसे सुन कर मेरा तो मेरा, आप जैसे बुद्धिजीवी का भी माथा घूम जाएगा।
कहने लगा, “भ्रष्टाचार की आदत दो मुझे।”
मैं अवाक्। “इसके बिना हमारी व्यवस्था कैसे चलेगी। यह तो हमारे शासन का शृंगार है। बिना भ्रष्टाचार, हमारे छोटे-बड़े ऑफ़िस बेनूर हो जाएँगे। लेना ही है तो कुछ और ले लो भाई।”
उसने घर की छत को घूरा।
फिर कुछ सेकेंड बाद, अपनी आँखें मुझ पर टिका कर बोलाम “ठीक है, महँगाई दे दो।”
मुझे फिर उसकी माँग पर आपत्ति हुई, “महँगाई कैसे दे दूँ भाई। यह तो हमारी मज़बूत अर्थव्यवस्था का चेहरा है। इसे हम दिन पर दिन ख़ूबसूरत बनाने वाले हैं। इस पर दिनों-दिन निखार ला रहे हैं हम। कुछ ही वर्षों में देखना, इतनी बढ़िया चमकेगी कि लोग पूरी तरह क़र्ज़ में डूब कर भी इसकी नज़र उतारेंगे। आम जन को इसका साथ भा गया है। कुछ और बताओ।”
पुराना साल अब थोड़ा कान के निकट आ कर फुसफुसाया, “बेरोज़गारी के बारे में क्या ख़याल है? इसे अब और मत रखो। सरकारें बदलीं किन्तु सबने इसे सँभाल कर रखा। तुम इसे अब निकालो घर से। तुमसे पहले वालों ने भी इसे नहीं निकाला। अब तुम भी आनाकानी कर रहे हो। कोई पसंद आ गई तो क्या घरवाली ही बना लोगे? मुझे दे दो। मैं बेरोज़गारी को अपने साथ ले जाना चाहता हूँ। यही आजकल के युवाओं का भी सपना है। वे हर हाथ को काम चाहते हैं।”
“बेरोज़गारी के बिना हमारा काम नहीं चल सकता। यह हमारे घोषणा पत्रों का अभिन्न अंग हुआ करती है। भाषणों की शोभा इसीसे है। इसे रुख़्सत कर दिया तो हमारे नेता लोग बिना मुँह के हो जाएँगे।”
इसके बाद उसने और भी बहुत कुछ गिनाया। बाक़ायदा सूची ही थमा दी। इसमें देश की सीमा पर फ़ौजियों का शहीद होना और देश के भीतर जातिवाद और ओछी राजनीति तक शामिल थे।
अब पुराना साल अपराध गिनाने पर आमादा हो गया। अपराधों में भी टॉप ग्रेड अपराध, बलात्कार पर उसने अपना दावा पेश किया। उसकी भृकुटि तन गई थी। आँखें लाल हो रहीं थीं। कहने लगा, “अपनी नाक मत कटवाओ। कुछ और नहीं तो अपनी बेटियों को तो सुरक्षित कर लो! शर्म नहीं आती पुराना सारा कचरा साथ में लिए-लिए ही नया साल मना रहे हो। समाज में नैतिकता का स्तर लगातार गिर रहा है। युवा, लिव इन में, वृद्ध ओल्डेज होम में। कहाँ गई संस्कृति? अपनी भाषा, अपने संस्कार किसके घर पानी भरने भेज दिए?”
मैं डर कर एक कोने में दुबक गई। सोचने लगी, इसे कैसे रुख़्सत करूँ। फिर मेरी अंतरात्मा, मेरी सास बन कर मुझे हड़काने लगी, “पुराने साल का सब कुछ अगर नए में भी रखोगी तो पुराना साल जाएगा कैसे? कैसे गया माना जाएगा?”
मैंने वाद प्रस्तुत किया, “मगर यही परंपरा है। पुराने साल के साथ कुछ नहीं जाता। कुछ भी नहीं। सब वही का वही रहता है और नया साल आ जाता है। नए वाले में भी वही सब चलता रहता है जो पुराने में चलता था।”
तभी पुराना साल बोला, “लाओ मुझे दो वह सब जो तुम्हें तकलीफ़ देता है। मैं सब ले जाऊँ। सारे दुःख अतीत बन जाएँ। बीते हुए कल की स्मृतियाँ बन जाएँ। और एक सुंदर राष्ट्र में सभी के लिए सुखद नए वर्ष का स्वागत करो।”
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