बिच्छारोपन का शिकार एक पौधा
हास्य-व्यंग्य | हास्य-व्यंग्य आलेख-कहानी अनीता श्रीवास्तव15 Oct 2022 (अंक: 215, द्वितीय, 2022 में प्रकाशित)
जब मुझे नर्सरी से लाने के लिए चुनिंदा पौधों के साथ रखा जा रहा था तो मैंने गर्व में भरकर पहले दाएँ, फिर बाएँ देखा। मैं ख़ुश था जैसे रामलीला का रावण अपने नौ अतिरिक्त सिर देख कर होता है। मैंने अपने पीछे छूट रहे बेचारे संगी-साथियों को, जिसे विनाश का कारण कहा गया है, उस घमण्ड में भर कर देखा।
दरसल मुझे उस कार्यक्रम में जाना था जहाँ ज़िले भर के बड़े-छोटे नेता और उनसे जो भी कोई कुछ देता-लेता, सबको जुटना था। मैं वीआईपी बनने जा रहा था अहो भाग्य! भला ऐसा कौन होगा जो धूल मिट्टी के बाद लग़्ज़री की चाह न रखता हो। मगर मेरा घमण्ड चकनाचूर हो गया जब मुझे ला कर मंच के एक ओर सरकारी अस्पताल में ग़रीब की प्रसव पीड़ा भोग रही स्त्री-सा छोड़ दिया गया। कार्यक्रम में भाषणबाज़ी, फूलमालाबाज़ी और स्वागतबाज़ी की रस्में अदा की जा रहीं थीं। आख़िर में संचालक ने गाल के एक तरफ़़ तम्बाकू का चोकर समेटते हुए गुहारा—आज के इस अस्पिस्ता (अस्पृश्यता) निवारण शिविर में आने के लिए आप सभी का आभार।
मुझे डर लगा—सब ख़त्म। मेरी सुध किसीको नहीं। क्या मैं यहीं पड़ा रहूँगा! किन्तु नहीं ज़माना इत्ता भी बुरा नहीं आया अभी। वे पुनः काग़ज़ में देख कर बोले—अभी कोई नहीं जाएगा। आप सभी से अनुरो . . . है रुकें। अभी यहाँ ‘बिच्छारोपन’ कार्यक्रम होगा। कृपया सहभागिता करें एवम् अपने गाँव के पर्यावरण को हरा-भरा रखें। मैंने देखा यहाँ तो पहले ही काफ़ी हारपन था लेकिन शायद ये पेड़ आज की तरह किसी शानदार कार्य क्रम में माननीयों के हाथ से नहीं लगाए गए थे। बल्कि ऐसे ही लगे थे। मैंने उन्हें हेय दृष्टि से देखा। तभी किसीने किसीको बताया तैयारी हो गई है। गड्ढा खोद दिया गया है।
मुझे मिट्टी को इधर-उधर करके छोटे से गड्ढे में रोपा जाना था। मगर यह गड्ढा तो काफ़ी छोटा था, इतना कि उसे देख कर मेरी हँसी निकल गई। फिर तत्काल मैंने ख़ुद सम्भाल लिया। थैंक गॉड किसी ने देखा नहीं। कुछ भी करके मुझे इस गड्ढे में खड़े होना ही है, वर्ना मेरा यहाँ आना बेकार चला जाएगा। तभी मैंने महसूस किया मुझे कोई नोटों के बण्डल सा पकड़े है, मज़बूती से। अनेक गोरी-काली, मोटी-पतली, अंगुलियाँ मेरी कोमल लचीली देह को दबोचे पड़ी हैं। उनमें आपसी युद्ध सा छिड़ा है, मुझे अपनी गिरफ़्त में ले लेने का। मेरी अंतरात्मा बड़बड़ाई-मैं तुम सबकी महबूबा तो हूँ नहीं कम्बख्तो! मार ही डालोगे क्या मुझे! मैंने दुत्कारा। मगर हा दैव! उन छीछड़ों पर तो कुछ असर ही ना हुआ।
अब आपको क्या बताऊँ! . . . कोई नौ लोगों का घेरा था। पाँच बैठे थे। चार उन पर झुके हुए। कोई मेरे नाज़ुक नवजात तने को बमुश्किल अंगुलियों के पोरों से छू पा रहा था। कोई मेरी पत्तियों के नुकीले छोर को हाथ लगाए था तो कोई मेरे और कैमरे के बीच उस कोण पर हाथ फैलाए था जहाँ से छूता हुआ प्रतीत हो। उनमें से हरेक जहाँ कहीं भी मुझे छू सकता था, छू रहा था। मुझे महसूस हुआ वे सभी प्रदर्शनकारी कलाओं के कलाकार हैं और बिच्छारोपन के रूप में उन्होंने एक अलग प्रकार की परफ़ॉर्मिंग आर्ट की विधा विकसित कर ली। इस विकट ‘प्रदर्शनकारी काल’ में वे सभी अपनी इस कला का प्रदर्शन करने को आतुर थे। यह सब देख कर मैं चिंतित हो उठा—इस संग्राम के बाद मेरा जीवित बच पाना दैव योग पर निर्भर है। मुझ नवांकुर की चिंता का विषय रूस-युक्रेन युद्ध के विश्व युद्ध में बदल जाने जितना गंभीर था। इधर से विधायक जी हैं, उनके बग़ल में जिलाधीश, फिर ज़िले भर के महकमों के अधिकारी हैं। वे मुझे घेर चुके हैं। अब फोटू खींचने वाले की तलाश में सबकी निगाहें चेहरा-चेहरा भटक रही हैं। कुछ दूरी पर फोटू खींचने के वाले मोबाइलची और रिपोर्टर सहित कैमरे दिखे। मैं एक साथ लज्जा और भय से काँप रहा था।
सांसद और विधायक से मैं कहता रहा—मालिक आप दोनों दो अलग-अलग पौधों का बिच्छारोपन कर लें तो मुझ पर बड़ी कृपा हो। किन्तु वे अगले कार्यक्रम में जाने की जल्दी में थे लिहाज़ा मेरी अपील को इग्नोर करके मुझ अकेले पर ही पिले रहे। वे सभी अनेक बारातों में जाने के अभ्यस्त रिश्तेदारों की भाँति बिच्छारोपन के भी अभ्यस्त थे।
उनमें एका थी।
उधर से कोई बोला ‘सर’ का मुँह कट रहा है। सुन कर उनके आगे वाली मैडम को याद आया उन्होंने अपना मुँह दिखाने के लिए गर्दन को कुछ ज़्यादा ही आगे तान दिया है, मैडम तनिक पीछे को खिंची, तभी उन्हें दूसरी महत्त्व की बात याद आई, कहीं इस नवजात लचीली देह पर से उनकी पकड़ ढीली न पड़ जाए। नतीजतन उनने मुझे और कस के पकड़ लिया। एक छुटभैये नेता जी अपने गमछे को दलगत पहचान का नौलखा बनाए गले में धारण किए थे। सितम यह कि उनके मेरे बीच सांसद जी दाल-भात में मूसल चंद बने बैठे थे। वे आदरणीय पीछे से झुक कर मेरी पत्तियों को हाथ लगाए थे। उन पर एक साथ तीन ज़िम्मेदारियाँ आन पड़ी थी। एक: मोबाइलची की तरफ़ देख कर मुस्कुराना। दो: मेरे स्पर्श से विलग न हो जाना। तीन: गमछे को सांसद महोदय के मुँह पर लटकने से बचाना।
मोबाइलची के इशारे पर उनकी आँखें उस ओर केंद्रित हो गईं जैसे जयमाल के समय वर-वधू पर होती हैं। हाथ सही जगह पर थे ही। चेहरे पर लोकलुभावन मुस्कान नपी-तुली मात्रा में फैल कर दन्त पंक्ति का विमोचन करने लगी। क्लिक क्लिक क्लिक। मुझे मुक्ति मिली। अब एक अर्दली सरीखा आदमी मेरे गिर्द मिट्टी डाल रहा है। आगे इसीका सहारा है।
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