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सोचने समझने के फ़ायदे

 

आज के बनावटी व्यस्तता के युग में समझदार बहुतायत में पाए जा रहे हैं। 

आज मेरे पास आपके लिए एक प्रश्न है। इसका उत्तर, जो दे उसका भला, जो न दे, उसका भी भला। इतना आग्रह ज़रूर है कि उत्तर सोच-समझ कर दीजिएगा। चूँकि यही एक काम है जो आज का आदमी बढ़िया कर लेता है। आप बैठे-बैठे सोचते रहिए। समझते रहिए। इस काम में न हिलना है न डुलना है। बस गद्देदार कुर्सी पर बैठ जाइये। आराम से पीठ टिकाइये और सोचिए। जित्ता मन हो सोचिए। एक मिनट। दो मिनट। घण्टे भर या कई-कई घंटे। घड़ी दो घड़ी में काम निपटा लेना आपको शोभा नहीं देता। इत्ता तो कोई ऐरा-ग़ैरा भी सोच लेता है। आप तो ज़्यादा समझदार हैं। 

ऐसा देखा गया है घर परिवार में इसके बड़े फ़ायदे हैं। परिवार में जो कम समझदार है वह कोल्हू के बैल की तरह घर के कामों में लगा रहता है। ज़्यादा समझदार बैठ कर आधे समय समझदारी की बातें करता है और आधे समय, मुख मुद्राएँ बदल-बदल कर सोचता रहता है। आप यह भी कर सकते हैं कि आधे दिन काम करें बाक़ी आधे दिन केवल सोच-विचार करें। यदि आप घर में बड़े हैं तो समय के चयन का आपके पास ‘पॉवर ऑफ़ अटॉर्नी’ है। जब जो चाहें करें। किन्तु यदि आप छोटे हैं तो भी परेशान न हों। कोई माई का लाल आपसे धेले भर का काम नहीं करा सकता। बस

आपको कुछ काम की बातें सीखनी पड़ेंगी। सिर्फ़ बातें। काम नहीं। यों आप अपने पर ये फ़ॉर्मूला लगाते समय समझदारी से काम लें। मैंने लिया है। नतीजतन मैं हमेशा ख़ाली रहती हूँ। 

अगर आप रिश्तेदारी में आए हैं और मेज़बान आपसे मदद की उम्मीद रखता है तो भी आप एक जगह रक्खे रहें। उम्मीद उसने रखी है। नतीजा; नाउम्मीदी का संताप भी उसीको झेलना है। आप निर्दोष पुण्यात्मा हैं। आप स्वयं को उसके घर के सोफ़े में धँसाए रखने का श्रम साध्य कार्य करते रहिए। वो एक-दो बार सुना कर चुप हो जाएगा। अतिथि देवो भव के कारण आपकी कामचोरी पूजनीय है। देवत्व निरापद है। न सोचिए कि मदद नहीं करेंगे तो इन्हें बुरा लगेगा। उनके लगने की चिंता नहीं करनी चाहिए। चिंता वो करे जिसे चिता तक जाने की जल्दी है। आपको तो युगों तक रहना है। 

सुद्दी लाल जी अपनी ओवर वेट काया से हेट नहीं करते वरन्‌ उसे प्यार से पालते-दुलारते रहते हैं। उसे आराम दायक स्थिति में रखना और उस स्थिति को स्थायी बनाए रखना उनके लिए उनकी प्रतिष्ठा का कारण है। एक शुभचिंतक ने उन्हें बढ़ते वज़न से आगाह किया तो वे बमक गए बोले खाते-पीते घर का हूँ। 

मेरे पड़ौसी छोटी–बड़ी तीन गाड़ियाँ रखते हैं। किसीने उनकी आवश्यकता पर प्रश्न किया तो वे बमक कर बोले जैसी ज़रूरत वैसी गाड़ी। सब्ज़ी-भाजी लाने, बच्चों को स्कूल छोड़ने एक गाड़ी तो पार्टी पिकनिक के लिए दूसरी। छोटे काम के लिए छोटी और बड़े के लिए बड़ी गाड़ी काम आती है। एकदम गली के नुक्कड़ तक जाना हो तो भी वे दुपहिया की सवारी बन कर ही निकलते हैं। पूछा गया, पैर किस लिए हैं। आवश्यकतानुसार इन्हें भी तो चलाया जाय। या ये यूँ ही पतलून पहनने को दिए हैं भगवान ने! 

वे ठठा कर हँसना चाह रहे थे मगर सोचमग्न हो गए। उन्हें देख कर कोई भी मुँह खोलना भूल जाय। वे अपने चेहरे पर सोच-विचार की गहन प्रक्रिया का अनुसरण करते भए आभिजात्य और समझदारी के भाव उगाने में सफल हो गए थे। 

दुनिया के अधिकांश समझदार ऐसे ही हैं। 

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