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बसंत

आज रविवार है; सोचा, थोड़ा आराम कर लूँ। जाने कब आँख लग गई! थोड़ी ही देर में ठक-ठक की ध्वनि ने मेरे विश्राम में बाधा पहुँचाई। देखा तो द्वार पर कोई खड़ा है। सूरत कुछ-कुछ पहचानी सी लगती है, मगर इतनी भी नहीं कि नाम याद आ सके।

"कब से खड़ा हूँ?" उसने ताना दिया।

औपचारिकता वश मैंने उसे अंदर आने को कहा। वो मेरे पीछे हो लिया। मैंने उसकी ओर देखे बगै़र ही कुछ बातें कीं। मैं बेखबर हूँ। उसने अब तक अपना नाम नहीं बताया। काम भी नहीं। उसके आने से मन को सुकून मिल रहा है। उसकी बातों में सरगम सी है, जो मन को तरंगित कर रही है। बातों के बीच, उसकी मधुरिम हँसी, पूरे परिवेश को सुहावना बना रही थी। मुझे ऐसा आभास हुआ जैसे, वह मेरे जीवन में उमंग और उत्साह का संचार करने आया है। मैंने एक उड़ती सी नज़र उस पर डाली। उसके मुख मंडल की आभा प्रकृति के सौंदर्य का नवगीत है, तत्क्षण, मुझे लगा हवा मादक हो उठी है। हृदय में अनुराग की लहरें उठने लगीं हैं। वह कभी मौन हो कर मुझसे कुछ सुनने की अपेक्षा करता; मैं कोई चलताऊ सा संवाद बोल कर अपने काम में लग जाती। आख़िर वो अपना तयशुदा समय मेरे साथ बिता कर जाने को तत्पर हुआ। मैं द्वार तक उसे छोड़ने आई। हाथ जोड़ते हुए मैंने पूछ ही लिया आप कौन? 
 उसने जाते-जाते कहा, "बसंत।"

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