पैर व चप्पलें
काव्य साहित्य | कविता रामदयाल रोहज9 Apr 2017
चप्पलें पत्थर का प्रहार
काँटों से घायल छाती का
असहनीय दर्द
आग सी तप्त धरा क्रोधित
काँच के टुकड़ों से लहुलुहान होकर भी
डटी रहती है महायोद्धा सी
किसकी हिम्मत कि पैरों का
कोई बाल बाँका कर सके
लेकिन पैर होते है बड़े निष्ठुर
अपने ही पैरों से दिन-रात रौंदते हैं
इन्हीं चप्पलों को!
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