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अनिरुद्ध सिन्हा का ग़ज़ल संग्रह—‘तुम भी नहीं’ भीड़ में अपनों की तलाश


पुस्तक का नाम-तुम भी नहीं (ग़ज़ल संकलन) 
शायर: अनिरुद्ध सिन्हा
प्रकाशक: भारतीय ज्ञानपीठ नई दिल्ली 3
प्रकाशन वर्ष: 2021
मूल्य: 210 रु.
पृष्ठ: 104

खुसरो, कबीर, निराला, त्रिलोचन और दुष्यंत की परंपरा से आई हुई ग़ज़ल अगर आज ज़िन्दा है तो इसका श्रेय हिंदी के जिन ग़ज़लकारों को जाता है, उनमें एक नाम अनिरुद्ध सिन्हा का भी है। अनिरुद्ध सिन्हा ख़ामोशी, ईमानदारी और ज़िम्मेवारी से ग़ज़ल कहने वाले जेनुइन शायर हैं। हिंदी के शायर और आलोचक दोनों में उनका मुक़ाम सरे फ़ेहरिस्त है। उनकी शायरी हर उस आदमी की ज़ुबान की शायरी है जिसने अपना कुछ खोया है, जिसके पास तकलीफ़ें हैं और जिसके दिल में मोहब्बत और चाहत है। 

उनकी सद्य: प्रकाशित ग़ज़ल की किताब ’तुम भी नहीं’ भारतीय ज्ञानपीठ से छप कर आई है। भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित किताबों के स्तर और गुणवत्ता के सम्बन्ध में कभी किसी प्रमाण पत्र की आवश्यकता नहीं पड़ती। अनिरुद्ध सिन्हा अपनी इस किताब में कोई भूमिका नहीं लिखते, न किसी से लिखवाने की ज़रूरत महसूस करते हैं। उन्हें पता है किसी रचनाकार का अंकन और मूल्यांकन उनकी रचना से होता है न कि आत्म प्रशंसा और प्रशस्ति पत्र से। 

इस संकलन का हर एक शे’र दिल से निकल कर दिल के अंदर जज़्ब कर जाता है। आज हम जिस वक़्त में जी रहे हैं वहाँ तमाम कोशिशें मनुष्य को बाँटने की की जा रही हैं उपभोक्तावादी संस्कृति ने आदमीयत और संस्कार को छीन लिया है। मनुष्य अपने किरदार में नहीं अपनी पूँजी और अपनी मिल्कियत से पहचाना जा रहा है। अनिरुद्ध सिन्हा के हर एक शे’र इस दुःख और दर्द का बयान करते हैं, जैसे उनका ये शे’र-

 

दोस्तों के साथ जब बाज़ार देखा जायेगा 
इक नये अंदाज़ से संसार देखा जायेगा 
 
इक चीज़ थी बची हुई वो भी उतार दी 
मजबूरियों ने बाप की पगड़ी उतार दी (पृष्ठ-12) 
 
अजब कशमकश में पड़ी ज़िन्दगी है 
विवश घर में रहने को हर आदमी है 

 

इस संकलन की तमाम ग़ज़लें ऐसी हैं, जो किसी जल्दबाज़ी में नहीं लिखी गई है, और न ही इसे सिर्फ़ क़ाफ़िया और रदीफ़ में फ़िट कर दिया गया है। असल में ग़ज़ल सिर्फ़ बनावट और सजावट के लिए नहीं जानी जाती है। उसका सामाज पर असर होना लाज़िम है। ग़ज़ल लहज़े की शायरी है, और प्रभाव पैदा करना उसका पहला गुण है। यह हुस्न की वह गुफ़्तगू है जो अपनी बात पुर असर ढंग से रखती है, और सिर्फ़ प्रेमालाप नहीं करती, बल्कि सारे जहाँ के ज़ख़्म को अपने जिगर में समेट लेती है। अनिरुद्ध सिन्हा के ग़ज़लें पढ़ते हुए पाठक उनकी ग़ज़लों के सम्मोहन से निकल नहीं पाता बल्कि सोचता है, रुकता है ठहरता है, और अपने दिल के अंदर एक टीस पाता है। कुछ शे’र मुलाहज़ा हो:

 

दिल ने सोचा ही नहीं राह की मुश्किल की तरफ़
मैं दबे पाँव निकलता गया मंज़िल की तरफ़
 
नाव काग़ज़ की बनी है दूर तक क्या जाएगी
डूब जाएगी किसी दिन साहिलों को है पता

 

 अनिरुद्ध सिन्हा की ग़ज़लों की एक बड़ी विशेषता उनका भाषाई संस्कार है। हिंदी ग़ज़ल जिस हिंदुस्तानी भाषा के लिए जानी जाती है अनिरुद्ध सिन्हा के तमाम शे’र इसके उदाहरण हैं। वह बड़ी सहजता और सरलता के साथ गंभीर बातें कर लेते हैं। इस किताब के कुछ शे’र भी इसकी पुष्टि करते हैं:

 

लहरों से खेलने का गिनेस शौक़ था बहुत
दरिया में पैर रखते ही कैसे फिसल गए
 
तमाम ख़्वाब सुनहरे में छोड़ आया हूँ 
वो मेरे गाँव की मिट्टी मुझे बुलाती है

 

उनकी ग़ज़लें उस दुष्यंती शैली में लिखी गई है जिसे समझने के लिए किसी दिमागी कसरत की ज़रूरत नहीं पड़ती। 

शायर की एक सबसे बड़ी खूबी यह भी है कि विरोध के स्वर में भी उनके लहज़े तल्ख़ नहीं होते वह अपनी नाराज़गी भी मोहब्बत के रास्ते से तय करते हैं। 

 

मेरा क्या आप भी तो बेज़ुबां थे
जहाँ कुछ बोलना था चुप वहाँ थे

 

उनकी शायरी में प्रेम भी है और प्रकृति भी, प्रेम में वह नफ़ासत  है जिसके लिए ग़ज़ल जानी पहचानी और स्वीकारी जाती है। उनकी ग़ज़लों में अज्ञेय की तरह धमनियों में लहू की धार नहीं उतर जाती। उनका प्रेम ख़ालिस प्रेम है। इसलिए शायद बस इतना ही कह पाता है कि–

 

तेरा ख़्याल अगर दम ब दम नहीं होता
हमारी फ़िक्र का मौसम यह नम नहीं होता (पृष्ठ 62) 

 

और फिर शायर की हिदायत भी कि–

 

बहुत अनमोल हो जाओगे तुम भी
जो अपना फूल जैसा दिल बनाओ

 

कहना न होगा कि अनिरुद्ध सिंहा तीन दशक से अधिक समय से जिस पाबंदी से ग़ज़लें लिख रहे हैं, आने वाले समय में हिंदी ग़ज़ल को इस बात का गुमान होगा कि उनके पास इस तरह का शायर भी है। भारतीय ज्ञानपीठ को भी इस बात के दाद दी जानी चाहिए कि उन्होंने उत्कृष्ट छपाई और कम ख़र्च में अनिरुद्ध सिन्हा जैसे शायर की हिंदी ग़ज़ल को एक अरसे के बाद ही सही लोगों को पढ़ने का अवसर प्रदान किया। 

डॉ. जियाउर रहमान जाफरी
स्नातकोत्तर हिंदी विभाग
मिर्जा ग़ालिब कॉलेज गया, बिहार
823001

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