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सिर्फ़ हंगामा खड़ा करना मेरा मक़सद नहीं . . .

 

साये में धूप के पचास वर्ष पर

 

 

दुष्यंत की कालजयी कीर्ति ‘साये में धूप’ (वर्ष 1975) के पचास वर्ष मुकम्मल होने पर पूरे देश में इसे एक उत्सव की तरह मनाया जा रहा है। यह एक ऐसी कृति है, जिससे न सिर्फ़ हिंदी ग़ज़ल लेखन की बाज़ाब्ता शुरूआत हुई, बल्कि वो ग़ज़ल जो सिर्फ़ नख-शिख वर्णन तक सिमट कर रह गई थी, वह यहाँ आकर आवाम के मुद्दे और ज़रूरतों से सीधे जुड़ गई। दुष्यंत के शेर की जादूगरी ने लोगों पर ऐसा असर दिखाया कि शायद ही कोई हो जिसे दुष्यंत के दो-चार शेर याद ना हों। सिर्फ़ आम जनता ही नहीं न्यायपालिका से लेकर विधायिका तक में उनके शेर मुहावरों की तरह इस्तेमाल होने लगे। 

दुष्यंत की ज़िन्दगी महज़ 44 वर्ष की थी। 27 सितंबर 1931को दुष्यंत का जन्म हुआ, और 1975 को वे इस दुनिया से रुख़्सत हो गए। पर एक ‘साये में धूप’ की सिर्फ़ 52 ग़ज़लें लिखकर दुष्यंत एक ऐसे चेहरे बन गये, जिसने न मात्र हिंदी ग़ज़ल की दिशा का निर्धारण किया, बल्कि पूरी ग़ज़ल परंपरा के लहजे को ही बदल कर रख दिया। 

उनकी पूरी ज़िन्दगी संघर्ष और अभाव में गुज़री, लेकिन कभी उन्हें इसकी फ़िक्र नहीं रही। उन्होंने अपनी नौकरी बचाने के लिए कभी किसी की चापलूसी न की, चाहे उनके सामने में खड़ा किसी राज्य का मंत्री ही क्यों न हो! दिखने में बड़े सुंदर दुष्यंत का पढ़ने-लिखने में उतना दिल न लगता था। लड़कियाँ उन पर आकर्षित हो जाती थीं। ठीक ऐसे ही समय में एक लड़की से उन्हें प्यार हो गया। निर्भीक दुष्यंत ने अपने पिता से शादी का प्रस्ताव रखा, पर पिता ने बे-वक़्त और ज़बरदस्ती उनकी शादी राजेश्वरी देवी से करा दी, सब का सम्मान करते हुए दुष्यंत ने इस रिश्ते को भी निभाया। पत्नी को पहले ही दिन अपने प्रेम के सारे क़िस्से सुना दिये और सारे प्रेम पत्र दिखला दिए। दुष्यंत ने कभी अपनी पत्नी के साथ बुरा व्यवहार नहीं किया, यहाँ तक कि वो उसे प्यार से राजो कह कर पुकारने लगे। शादी के बाद दोनों ने फिर पढ़ाई शुरू की। पिता ने दो कमरे का भोपाल में मकान किराए पर ले दिया, पर पिता कब तक उनकी ज़रूरतें पूरी करते। एक समय दुष्यंत आर्थिक तंगी में घिर गये। फिर बच्चन की पैरवी पर रेडियो स्टेशन में नौकरी मिल गई। 

ऐसा भी नहीं है कि दुष्यंत ग़ज़लों को लेकर हिंदी में आए थे। सूर्य का स्वागत उनका प्रथम काव्य संग्रह है जो 1957 में छप गया था। वह अपनी कहानी आलोचना और उपन्यास को लेकर भी काफ़ी चर्चा में रहे। कहने का अर्थ ग़ज़ल की दुनिया में आने से पहले ही दुष्यंत को पर्याप्त शोहरत मिल चुकी थी। 

दुष्यंत ने ग़ज़ल में आने की वजह भी बताई। उन्होंने कहा सिर्फ़ पोशाक या शैली बदलने के लिए उन्होंने ग़ज़लें नहीं कही हैं। बल्कि अपनी तकलीफ़ों को ज़्यादा से ज़्यादा लोगों तक पहुँचाने के लिए ग़ज़लें कही हैं, और यह सच भी साबित हुआ कि दुष्यंत की ग़ज़लें ज़र्रे-ज़र्रे तक पहुँच गईं। दुष्यंत ने पहली बार ग़ज़ल के माध्यम से लड़ना सिखाया। अपने हक़ और अधिकार को प्राप्त करने के लिए जद्दोजेहद करना सिखाया। उनका एक-एक शेर इमरजेंसी का गवाह बना। उनके मित्र और कथाकार कमलेश्वर ने लिखा है—आपातकाल के सारे प्रावधानों और राजनीतिक तानाशाही द्वारा बाधित किए गए सारे मानवीय सरकारों की पक्षधर्ता में हमें हिंदी का एक ही कवि दिखाई पड़ता है और वह है ‘साये में धूप’ का कवि दुष्यंत कुमार। वह एक ऐसा शायर था जो उस दौर में भी इंदिरा से सवाल कर सकता था:

 “कहां तो तय था चरागां हर एक घर के लिए
 कहां चराग़ मयस्सर नहीं शहर के लिए”

फिर उन्होंने जनता से मुख़ातिब होते हुए कहा:

 “हो गई है पीर पर्वत सी पिघलनी चाहिए
 इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए

 सिर्फ़ हंगामा खड़ा करना मेरा मक़सद नहीं
 मेरी कोशिश है कि यह सूरत बदलनी चाहिए”

 फिर वह व्यवस्था पर सवाल उठाते हैं, और कहते हैं:

 “बाढ़ की संभावनाएँ सामने हैं
 और नदियों के किनारे घर बने हैं”

 दुष्यंत की शायरी सत्ता के ख़िलाफ़ एक जलती हुई मशाल थी। इसलिए जितने उनके दोस्त बने उससे ज़्यादा उनके दुश्मन बनते चले गए। एक समय ऐसा भी आया जब उन्हें ग़ज़ल न लिखने की सलाह दे दी गई। दुष्यंत के पुत्र आलोक त्यागी लिखते हैं—उन्हें दोस्त और दुश्मन दोनों बनाने में महारत हासिल थी। हुकूमत उनके रवैये से कभी ख़ुश नहीं रही। ‘ईश्वर की सूली’ नाम की कविता लिखने पर तात्कालिक मुख्यमंत्री के कोप-भाजन बने। एक बार फखरुद्दीन अली अहमद जब इंग्लैंड गए तो बीबीसी वालों ने उनसे पूछा, “आपको पता है आपके देश में एक शायर क्या लिख रहा है?”

“एक बूढ़ा आदमी है मुल्क में या यों कहो
इस अँधेरी कोठरी में जैसे रोशनदान है”

राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद जब भारत पहुँचे तो उन्होंने दुष्यंत को बुलाया और पूछा कि उसमें बूढ़ा आदमी कौन है? असल में बूढ़ा दुष्यंत का प्रयोजन जयप्रकाश नारायण से था। जिनका जेपी आंदोलन उसे समय काफ़ी चर्चा में था। दुष्यंत को मार्कंडेय और कमलेश्वर का भी साथ मिला। पूरी हिंदी पट्टी में इन तीनों की मित्र मंडली के काफ़ी चर्चे थे। दुष्यंत की शायरी से दुनिया ने पहली बार ग़ज़ल को आंदोलन बनते देखा। दुष्यंत की शायरी का दायरा इतना बड़ा था कि मंच पर बैठे आदमी से लेकर, एक कुली और रिक्शा चलाने वाला भी उनके शेर से वाक़िफ़ था। वह एक ऐसा शायर था जो शायरी करते हुए पहली बार लोगों का आइडियल बना। साये में धूप की लगभग दो लाख से अधिक प्रतियाँ बिक गईं। सैकड़ों शोध हुए। उन पर फ़िल्में बनी, और दुनिया की कई जुबानों में उनकी इस कृति का अनुवाद हुआ। 

असल में दुष्यंत की ग़ज़ल में एक ताक़त थी, एक असंतोष था, लेकिन वह अफ़सोस कर रह जाने वाला शायर नहीं था, वह अन्याय के ख़िलाफ़ लड़ने के लिए आमादा हो जाता था। उसका आह्वान था:

 “एक चिंगारी कहीं से ढूँढ़ लाओ दोस्तों
 इस दिये में तेल की भीगी हुई बाती तो है”

दुष्यंत थोड़ा बहुत नहीं पूरी व्यवस्था बदलने की बात करते हैं:

“अब तो इस तालाब का पानी बदल दो
 ये कंवल के फूल कुम्हालाने लगे हैं”

दुष्यंत का साये में धूप नाम भी बड़ा व्यंजक है, जहाँ साया भी है और धूप भी। दुष्यंत का एक शेर भी है:

“यहाँ दरख़्तों के साये में धूप लगती है
चलो यहाँ से चलें और उम्र भर के लिए”

सिर्फ़ विरोध और प्रतिशोध ही नहीं दुष्यंत की ग़ज़लों में ग़रीबी, बेकसी, उत्पीड़न और अन्याय का भी भरपूर चित्रण है:

“कभी कालीन देखेंगे तुम्हारा
अभी तो पाँव कीचड़ में सने हैं”

और फिर यह भी कि:

“न हो क़मीज़ तो घुटनों से पेट ढक लेंगे
ये लोग कितने मुनासिब हैं इस सफ़र के लिए”

पूरी हिंदी ग़ज़ल की परंपरा में अपने ऐसे ही शेरों से हर दिलों पर राज करने वाला दुष्यंत 30 सितंबर 1975 की रात में सिर्फ़ 44वर्ष की अवस्था में हृदयाघात के कारण हम सबको रुलाता हुआ चला गया। दुष्यंत की मौत के बाद उस समय की प्रसिद्ध पत्रिका सारिका ने उन्हें श्रद्धांजलि देते हुए सूरज को डूबता हुआ दिखलाया था। वास्तव में दुष्यंत नाम का वह सूरज हिंदी ग़ज़ल में दोबारा नमूदार नहीं हो सका। 
 

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