हिंदी में नये लबो लहजे की ग़ज़ल: 'हाथों से पतवार गई'
समीक्षा | पुस्तक समीक्षा डॉ. ज़ियाउर रहमान जाफरी1 Jun 2022 (अंक: 206, प्रथम, 2022 में प्रकाशित)
समीक्षित पुस्तक हाथों से पतवार गई (ग़ज़ल संग्रह)
प्रकाशक: श्वेतवर्णा प्रकाशन, नई दिल्ली
वर्ष: 2021
मूल्य: ₹160। 00
पृष्ठ:104
हिंदी ग़ज़ल की पूरी परंपरा मोटे तौर पर तीन धाराओं में विभक्त है। पहली धारा वो है जिसमें अमीर खुसरो से लेकर कबीर होते हुए भारतेंदु हरिश्चंद्र और निराला आते हैं। दूसरी जिसकी नुमाइंदगी शमशेर, रंग और दुष्यंत करते हैं। तीसरी और महत्त्वपूर्ण धारा दुष्यंत के बाद की वो पीढ़ी है, जिसने ग़ज़ल की विरासत को ख़ूबसूरती से सँभाल रखा है और आज हिंदी ग़ज़ल को जन-जन तक पहुँचाने और स्थान दिलाने में इनकी महत्त्वपूर्ण भागीदारी है। इस धारा में जहीर कुरैशी से होते हुए विज्ञान व्रत, अनिरुद्ध सिन्हा, हरेराम समीप, उर्मिलेश, कुंवर बेचैन और विनय मिश्र जैसे कई शायर हैं। इन तीन धाराओं के बीच एक ऐसी भी धारा प्रवाहित हो रही है जिन्हें हिंदी ग़ज़ल भले ही नोटिस नहीं ले रही हो लेकिन ग़ज़ल का भविष्य इनके हाथों में ही सुरक्षित है, यह इनके ग़ज़ल समझने और लिखने का लहजा बोलता है। यह गज़लकार अधिकतर युवा हैं लेकिन उन्होंने हमेशा हिंदी ग़ज़ल की अद्यतन परंपरा में अपनी महत्त्वपूर्ण उपस्थिति दर्ज की है। दीपक चंदवानी, ए एफ़ नज़र, के पी अनमोल, राहुल शिवाय, और डॉ. भावना से लेकर मनोज एहसास तक इस वक़्त के कई नुमाइंदा नाम हैं।
हाथों से पतवार गई मनोज एहसास का ताज़ा गज़ल संकलन है। जिसे हमेशा की तरह श्वेतवर्णा प्रकाशन ने पूरी ज़िम्मेदारी से प्रकाशित किया है। इसकी भूमिका हिंदी ग़ज़ल के महत्त्वपूर्ण शायर और आलोचक अनिरुद्ध सिन्हा और नज़्म सुभाष ने पूरी तन्मयता से लिखी है। अनिरुद्ध सिन्हा ने मनोज एहसास को आस्था, आशा और भविष्य प्रतीक्षा का ग़ज़लकार कहा है तो नज़्म सुभाष इनकी ग़ज़लों मैं घनानंद का आधुनिक रूप देखते हैं। उनकी मानें तो वे मुख्यतः वियोग शृंगार के ही रचनाकार हैं। असल में ग़ज़ल अपने मूल रूप में प्रेम काव्य है, और वो स्त्री से प्रेम की बातें करती है। यह अलग बात है कि वक़्त ने इस प्रेयसी के पाँव में ज़रूरत के घुँघरू बाँध दिए हैं, और अब वह दुनियादारी की बातें करने लगी है। जीवन के तमाम संघर्षों से रूबरू होते हुए भी एक वक़्त ऐसा आता है जब आदमी प्रेम करना चाहता है क्योंकि प्रेम मुश्किल ज़िन्दगी को ख़ूबसूरत बना कर एक नई स्फूर्ति, चेतना और ऊर्जा प्रदान करता है। ग़ज़ल के प्रेम की सबसे बड़ी बात है कि उसमें शाइस्तगी और पाकीज़गी है। इसलिए वहाँ प्रयोगवादी कवियों की तरह रक्त खौला देने वाला चुंबन नहीं है। पूरी हिंदी कविता परंपरा में ग़ज़ल की प्रेयसी सबसे अधिक शालीन और डेकोरस है। ऐसा नहीं है कि मनोज एहसास अपनी ग़ज़लों में सिर्फ़ प्रेम की ही बातें करते हैं। वो समाज, देश की अर्थव्यवस्था, बेरोज़गारी, ख़ून-ख़राबा, आतंक विद्रूपता, घुटन, संत्रास ऊँच–नीच धार्मिक कट्टरता, भाषाई विवाद आदि की भी चिंता उन्हें बराबर सताती रहती है। मनोज एहसास ख़ुद मानते हैं कि—मैं ग़ज़ल कहकर वह आनंद प्राप्त करता हूँ जो किसी पीड़ा की मुक्ति से प्राप्त होती है। मतलब उनके लिए ग़ज़ल साहित्य उनकी तकलीफ़ को दूर करने का माध्यम है। दुष्यंत इसे ही गुनगुनाहट के रास्ते बाहर आना कहते हैं। उनके ग़ज़ल संकलन की पहली ग़ज़ल ही इतनी ख़ूबसूरत बन जाती है कि आप इसके किसी शेर को नज़रअंदाज़ नहीं कर सकते। शायर का एक मासूम सा आग्रह है और उस विनती में कविता चित्रात्मकता और इमैजिनेशन भी है:
किसी की याद में ज़ख़्मों को दिल में पालते रहना
तबाही का ही रस्ता है यों शोलों पर खड़े रहना
न जाने कौन से पल में क़लम गिर जाए हाथों से
मगर तुम आख़िरी पल तक हमारे सामने रहना
किसी सूरत भी मेरा दिल बहल सकता नहीं फिर भी
तकल्लुफ़ का तक़ाज़ा है तबीयत पूछते रहना
यह पूरी ग़ज़ल दिल के अंदर मीठा दर्द पैदा करती है और पाठक शायर का मुरीद बन जाता है। शायद यही वजह है कि मनोज एहसास की ग़ज़लें पाठकों को बड़ी शिद्दत से अपनी ओर ध्यान आकृष्ट करती हैं। उनकी ग़ज़लों का कला सौष्ठव, भाषाई बुनावट और अंतर्वस्तु को देखकर ऐसा अनुमान नहीं होता कि वह हिंदी के युवा ग़ज़लकार हैं। उनकी तमाम ग़ज़लों का रूप रस और गंध अपनी पूर्वर्ती ग़ज़ल परंपरा से अलग-थलग है। हिंदी ग़ज़ल जहाँ सिर्फ़ समस्याओं की बात करती हुई इश्क़ को किनारे कर बैठी है मनोज असल में फिर से उसी मोहब्बत की बात करने का जोखिम उठाते हैं, और हैरत की बात यह है कि ग़ज़ल उन्हें स्वीकृत भी करती है।
उनकी ग़ज़लों को पढ़ते हुए उनका सूफ़ियाना अंदाज़, शब्दों का लालित्य उसकी गहराई, विस्तार, मुहावरा बनावट तथा बुनावट न मात्र हमें प्रभावित करता है बल्कि उनकी लेखनी के प्रति आश्वस्त भी करता है। कुछ शेर देखने योग्य हैं:
लोग कहते हैं कोई और है उसका माँझी
आज दुनिया ने उसे नांव चलाते देखा
किसी के हाथ में चुभती है चाँदी
किसी के हाथ में चिमटा नहीं है
अब होश की ज़मीन पर टिकते नहीं क़दम
बरसों तुम्हारे प्यार में पागल रहा हूँ मैं
कहना न होगा कि उनकी ग़ज़लों में जिस भारतीय परिवेश, परंपरा और संस्कार के दर्शन होते हैं, वो ग़ज़ल के लिए बिल्कुल अलग और नायाब चीज़ है। उनका हर शेर इस बात को पुष्ट करता है कि जीवन में विश्वास का होना सबसे ज़रूरी है इसलिए वह कहते हैं:
पिछले माँझी की शिकायत तो बहुत करता है
पूरी कश्ती है मगर तेरे हवाले अब तो
आज की ज़्यादातर ग़ज़लों में जहाँ भरपाई के शेर भरे पड़े हैं वहीं मनोज एहसास सिर्फ़ एक-दो शेर पर नहीं पूरी ग़ज़ल पर मेहनत करते हैं कवि की ग़ज़लों में सघन अनुभूति और विस्तार के दर्शन होते हैं। कुछ और शेर देखे जा सकते हैं:
बीच सफ़र में धीरज टूटा हाथों से पतवार गई
मेरे मन की लाचारी से मेरी कोशिश हार गई
पापा की आँखों ने उसको जाने क्या क्या समझाया
बेटी जब कॉलेज के ख़ातिर घर से पहली बार गई
मनोज एहसास ग़ज़ल के बाज़ाब्ता शायर हैं। छोटी बहर की ग़ज़लें कहते हुए भी उसमें कहन की कोई कमी नहीं है। एक शेर मुलाहज़ा हो:
आँखों में बेबसी है दिलों में उबाल है
कैसा फरेबी वक़्त है चलना मुहाल है
मनोज एहसास की ग़ज़लों से जीवन का गहरा ताल्लुक़ है। पाश्चात्य काव्यशास्त्री प्लेटो भी काव्य को जीवन का अनुकरण मानते हैं। जिसके लिए उन्होंने इमिटेशन शब्द का इस्तेमाल किया है। मनोज एहसास के भी कई शेर ऐसे हैं जिसमें ज़िन्दगी के तल्ख़-शीरीं तजुर्बे हैं।
ज़िन्दगी ने सब दिया पर चैन का बिस्तर नहीं
जिस जगह सर को न पटका ऐसा कोई डर नहीं
(पृष्ठ-52)
सबका एक दिन आता है दिन मेरा भी जाएगा
जीवन पूरा होते-होते जीवन भी आ जाएगा
हमारे क़त्ल में है साथ उसका
तो फिर उसकी सज़ा कुछ भी नहीं है
मनोज एहसास के ग़ज़लों की भाषा उसी दुष्यंती शैली में है, जिसमें हिंदी ग़ज़ल सबसे फ़िट बैठती है। असल में ग़ज़ल डिक्शनरी लेकर पढ़ने-सुनने की चीज़ नहीं है। आपकी ग़ज़लों में ऐसा कोई शब्द नहीं है जिससे आपका वास्ता न हुआ हो। यही उनकी ग़ज़लों का हुस्न भी है, रवानी भी है और हिंदी ग़ज़ल का अपना मिज़ाज भी। उनका लहजा बहुत कुछ उर्दू के शायर क़तील शिफ़ाई और नासिर काजमी से मिलता है। यही वजह है कि उनके हर शेर हमारी ज़बान पर आसानी से चढ़ जाते हैं। कुछ शेर देखने योग्य है:
मजबूरियाँ हमारी हमारा नसीब है
चलने की आरजू है मगर रास्ता नहीं
ज़माने भर में जितने हादसे हैं
हमें ख़ामोश होकर देखने हैं
कहना न होगा कि मनोज एहसास के इस संकलन में समाहित ग़ज़लें भाषा और भाव दोनों धरातल पर सरल एवं सहज होते हुए भी नये प्रतीकों और बिम्बों की रचना करती हैं। यह ग़ज़ल हिंदी भाषा से अधिक हिंदुस्तानी ज़ुबान की ग़ज़ल है। उनके शब्द भारोपीय भाषा के नहीं बल्कि घर परिवार में घुले-मिले शब्दों से रचे गए हैं। इसलिए इसमें सम्प्रेषणीयता की कोई कठिनाई नहीं है। हिंदी ग़ज़ल परंपरा में ग़ज़ल को लीक से हटकर उन्होंने कुछ कहने की कोशिश की है। उनकी गज़ल पढ़ते हुए लगता है कि वो सिर्फ़ काफिया और रदीफ़ फ़िट करने वाले शायर नहीं हैं। किसी भी शायर की ग़ज़लों का यह लहजा और प्रभावोत्पादकता कड़ी मेहनत के बाद सामने आता है। इसमें दो राय नहीं है कि इस संकलन से उनकी एक पहचान बनेगी, और हिंदी के एक मुनफ़रिद शायर के तौर पर वो जाने पहचाने जाएँगे।
सहायक प्रोफ़ेसर
स्नातकोत्तर हिंदी विभाग
मिर्जा ग़ालिब कॉलेज गया बिहार
9934847941
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