उतार देती है
काव्य साहित्य | कविता डॉ. ज़ियाउर रहमान जाफरी1 Dec 2021 (अंक: 194, प्रथम, 2021 में प्रकाशित)
बड़े-बड़ों की ये हस्ती उतार देती है
ग़रीबी बाप की पगड़ी उतार देती है
न जाने क्यों ये मेरा दिल धड़कने लगता है
वो जब भी हाथ की चूड़ी उतार देती है
कभी अदा, कभी आँखें कभी नज़र दे कर
ये ऐसा क़र्ज़ है लड़की उतार देती है
अमीरी फिरती है मोटा बदन बनाए हुए
ग़रीबी जिस्म की हड्डी उतार देती है
किया जो प्यार तो नस्लें भी देख लीं मैंने
ये वो ख़ता है जो बस्ती उतार उतार देती है
ज़रा क़रीब मेरे पास और आते हुए
वो अपने हाथ की मेंहदी उतार देती है
बड़े बुज़ुर्गों की ये बात याद है अब भी
बहुत हो खाँसी तो हल्दी उतार देती है
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