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ग़ज़ल में महिला ग़ज़लकारों का दख़ल 

पुस्तक: दहलीज़ से आगे बिहार की महिला ग़ज़लकार
संपादक: अविनाश भारती
प्रकाशक: श्वेतवर्णा प्रकाशन नोएडा
प्रकाशन वर्ष: 2024
मूल्य: ₹299.00
पृष्ठ:160


अविनाश भारती ने थोड़े से समय में ही ग़ज़ल और समीक्षा के क्षेत्र में अपनी मज़बूत उपस्थिति दर्ज़ की है। उनके पास ग़ज़ल को लेकर एक आयडिया है। हमेशा कुछ नया करने की तत्परता है। उनके पास एक एक्सपेरिमेंट और एक्साइटमेंट है। उसी का प्रतिफल है कि उनके संपादन के ज़िम्मे एक और नई किताब ‘दहलीज़ से आगे बिहार की महिला ग़ज़लकार’ के रूप में हमारे सामने आई है। यह कम संतोष का विषय नहीं है कि हिन्दी साहित्य में हाशिये पर रखी जानी वाली ग़ज़ल विधा अब एक-एक शख़्स एक-एक क्षेत्र और एक-एक विमर्श को लेकर हमारे सामने आ रही है। ग़ज़ल अपनी इब्तिदा से ही औरतों के क़रीब रही है, पर यह स्त्री सिर्फ़ शायरी की ज़ीनत बनती रही है। तब उनका बोलना मना था। बस उनके हुस्न के नख़रे दिखते थे, वो उड़नलोक की परी थी, उनकी अपनी तकलीफ़ें, दुःख, दर्द और एहसास कहीं नज़र नहीं आते थे। आज स्त्रियाँ ख़ुद ग़ज़ल लिख रही हैं, और इस बहाने अपनी फ़िक्र, अपने तख़य्युल और अपने परवाज़ को क़रीने से रख रही हैं। यह स्त्रियाँ अब दबी-कुचली नहीं हैं, बल्कि समाज में एक ताक़त बनकर मज़बूती के साथ अपना असर और रोब रखती हैं। 

हिन्दी में महिला ग़ज़लकारों की संख्या हमेशा से कम रही है। सिर्फ़ हिन्दी क्या उर्दू की छह सौ साल पुरानी शायरी की परंपरा में भी स्त्री ग़ज़लकारों में हमारा ध्यान सिर्फ़ परवीन शाकिर और किश्वर नाहीद जैसे कुछ लोगों पर जाता है। एक समय में महिलाओं का ग़ज़ल लिखना ख़राब समझा जाता था। कहते हैं कि उर्दू के अज़ीम शायर मीर तकी मीर की पुत्री का दीवान तक शायरी करने पर जला दिया गया था। इन हिन्दी-उर्दू के चंद महिला ग़ज़लकारों में भी बिहार की ज़मीन से महिला ग़ज़ल शायरत को तलाशना एक संपूर्ण शोध का विषय है, जिसे अविनाश भारती जैसे उद्यमी लोग ही पूरा कर सकते हैं। मैं जहाँ बिहार की माटी से जुड़े चार-पाँच महिला ग़ज़लकारों से अधिक को नहीं जानता था, वहाँ अविनाश ने साठ ग़ज़लकारों को इकट्ठा कर लिया है, जिससे उनकी खोज प्रवृत्ति और अनुसंधान का पता चलता है। ज़ाहिर है इसमें ऐसी भी शायरा शामिल हैं जिनकी ग़ज़लें उतनी परिपक्व नहीं हैं। कथ्य और शिल्प के स्तर पर भी ख़ामियाँ हैं। बावजूद उसके वह ग़ज़ल लिख रही हैं और निरंतर बेहतर कहने की कोशिश कर रही हैं जो बड़ी बात है। उन्होंने इस विधा में अपने आप को अभिव्यक्त और स्थापित किया है, उन्हें एक स्पेस मिल रहा है, यह भी ख़ुद में कम महत्त्वपूर्ण नहीं है। वह अपनी बात को बार-बार रखती हैं जैसे इओनेस्को का पात्र बाल्ड सोप्रानो तब तक बात करते हैं जब तक बात स्पष्ट ना हो जाए। इसमें ऐसी भी रियासते बिहार की शायरा हैं, जिनकी शायरी की दुनिया में बड़ा मर्तबा है, वो शोध और विमर्श का हिस्सा हैं। आशा प्रभात से लेकर डॉ. भावना तक इसकी मिसाल हैं। इस शुमारे की शायरा शान्ति जैन जहाँ चाँद को ज़मीन पर लाने की बात करती हैं, तो डॉ. भावना नदी में उठने वाले तूफ़ान का रहस्य उद्घाटित करती हैं। 

ग़ज़ल एक पेचीदा सिन्फ़ है जिसकी बनावट उसका शरीर और कथ्य उसकी आत्मा है। एक कमज़ोर कथ्य शिल्प की मौजूदगी के बावजूद शरीर को बेजान बना देता है। आप बिना कथ्य शिल्प को लेकर प्रभावपूर्ण शायरी नहीं कर सकते। अविनाश की इस सम्पादित किताब की ग़ज़लों से रूबरू होकर आप महसूस करेंगे कि ये शायरात अपने विचार तखैयुल और कोग्निशन को पूरी साफ़गोई के साथ रखती हैं। इन शे'रों में शेरीयत भी है और ज़ेहनियत भी। हम स्त्री होने के नाते उनकी ग़ज़लों को हाशिये पर नहीं रख सकते। इन ग़ज़लों से गुज़रते हुए आप महसूस करेंगे कि यह ग़ज़ल अपने शिल्प और कथ्य के स्तर पर कई पुरुष ग़ज़लकारों से भी बेहतर रची गई है, पर ये रश्क नहीं राग का विषय होना चाहिए। 

हिन्दी ग़ज़ल को ज़रूरत है कि वह अपनी सिर्फ़ एक खिड़की से ग़ज़ल की पूरी दुनिया को देखने की ज़िद ना करे, बल्कि वह खिड़कियाँ खुलें जिससे चारों जानिब पूरी कायनात नज़र आए। ग़ज़ल-लेखन में महिला ग़ज़लकारों को देखना असल में सदियों से बंद मकान में एक और दरीचे को खोलना है। आने वाले समय में हिन्दी-उर्दू ग़ज़ल की समृद्ध और चहुमुखी परम्परा को दिखाने के लिए यह किताब सबूत के तौर पर पेश किया जा सकेगा। 

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