अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता सजल

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा यात्रा वृत्तांत डायरी बच्चों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

रेखाचित्र पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

कछुआ फिर जीत गया

कछुए और ख़रगोश में फिर दौड़ की शर्त लग गयी थी। कछुए ने भी चैलेंज कर दिया था कि इस बार भी जीत कछुए की ही होगी। ख़रगोश भी सतर्क हो गया था कि उसके परदादा ने दौड़ के बीच में जो आराम करने की ग़लती की थी, उसे वह नहीं दोहराएगा। वर्षों बाद नए युग में होने वाली कछुए और ख़रगोश की दौड़ को प्रायोजित करने के लिए बड़ी-बड़ी कंपनियाँ उठ खड़ी हुई थीं। क्योंकि इस मुक़ाबले को देखने के लिए हर कोई उत्सुक था। पर मैदान में इस मुक़ाबले को आम आदमी देख नहीं सकता था। चूँकि इस दौड़ के लिए टिकट ख़रीदना हर किसी के बस की बात नहीं थी। जिससे इसे प्रायोजित करने वाले टीवी चैनलों की तरफ़ सबका ध्यान था। 

ज्यों-ज्यों दौड़ का दिन नज़दीक आता जा रहा था। सट्टा बाज़ार भी गरम होता जा रहा था। ज़्यादातर ख़रगोश पर ही दाँव लगा रहे थे। जिससे कछुए का जीतना स्टोरियों के लिए ज़्यादा फ़ायदेमंद था। 

आख़िर मुक़ाबले का वो दिन आ ही गया जिसका लोगों को बेसब्री से इंतज़ार था। मुक़ाबला शुरू हुआ कछुए ने अभी सरकना शुरू ही किया था कि ख़रगोश ने लगभग हवा में उड़ते हुए दौड़ पूरी कर दी। उसने तो पीछे देखने की भी कोशिश नहीं की। कछुए ने जैसे-तैसे बड़ी देर बाद वह दौड़ पूरी की लोग यह देखकर हैरान थे कि कछुए ने क्या सोचकर ख़रगोश को चैलेंज किया था? परन्तु थोड़ी देर बाद जब कछुए को विजेता घोषित किया गया तब लोगों की समझ में सब माजरा आ गया। क्योंकि ख़रगोश बेचारा ’डोप टैस्ट’ में फ़ेल हो गया था। 

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

 छोटा नहीं है कोई
|

इलाहाबाद विश्वविद्यालय के गणित के प्रोफ़ेसर…

अंतिम याचना
|

  शबरी की निर्निमेष प्रतीक्षा का छोर…

अंधा प्रेम
|

“प्रिय! तुम दुनिया की सबसे सुंदर औरत…

अपात्र दान 
|

  “मैंने कितनी बार मना किया है…

टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

लघुकथा

ग़ज़ल

कविता

सांस्कृतिक कथा

विडियो

उपलब्ध नहीं

ऑडियो

उपलब्ध नहीं