पानी का घड़ा
कथा साहित्य | लघुकथा सुनील कुमार शर्मा1 Sep 2021 (अंक: 188, प्रथम, 2021 में प्रकाशित)
देश-विभाजन का फ़ैसला हो चुका था। पंजाब में भयानक मार-काट मची हुई थी। जान बचाने के लिए लोग, देश के एक हिस्से से दूसरे हिस्से की ओर भाग रहे थे। ऐसे ही लोगों से भरी हुई एक रेलगाड़ी अपनी रफ़्तार से आगे बढ़ती जा रही थी। उस गाड़ी के दहकते इंजन का धुआँ, उसमें भरी लोगों की आहों का धुआँ बनकर पीछे की तरफ़ उड़ता जा रहा था। रावलपिंडी, झेलम पीछे छूट चुके थे, गाड़ी गुजरात ज़िले में प्रवेश कर रही थी। भेड़-बकरियों की तरह ठसाठस भरे उस गाड़ी के डिब्बे में लोगों का प्यास से मारे बुरा हाल हो रहा था। किसी भी स्टेशन पर पानी लाना ख़तरे से ख़ाली नहीं था। जिसने भी ऐसा प्रयास किया वह वापिस नहीं आया था। इस संकट की घड़ी में भी एक महानुभाव पानी के पूरे भरे एक घड़े पर साँप की तरह कुंडली मारे बैठा था। वह अपने परिवार के अलावा किसी को एक घूँट पानी भी नहीं दे रहा था। पानी का घड़ा साथ ले आने की अपनी होशियारी पर पर फूले नहीं समा रहा था। एक माँ अपने बच्चे को उसी का पेशाब पिलाने की कोशिश कर रही थी। वह बच्चा, ललचाई हुई नज़रों से उस घड़े की ओर देखते हुए, रो-रोकर सूख चुके गले से बड़ी मुश्किल से बोल पाया, “मैंने मूतर नहीं पीना . . . पानी पीना”।
उस बच्चे पर भी उसे तरस नहीं आया। अचानक लाला मूसा स्टेशन से कुछ पहले एक वीरान जगह पर गाड़ी के ब्रेक लग गए। गाड़ी के रुकते ही, तेज़धार वाले हथियारों के साथ कई आतातायी उस गाड़ी के डिब्बो में घुस गए। बड़ी भयानक दिल दहला देने वाली चीख़-पुकार के बाद जब वह डिब्बा शांत हो गया; तो उन ज़ालिमों ने उसी घड़े के पानी से अपनी प्यास बुझाई। अंतिम साँसे ले रहा उस घड़े का मालिक उन दरिंदों की तरफ़ याचना भरी निगाहों से देखते हुए, घुटी हुई आवाज़ में बोला, “पानी . . . !”
जिसे सुनकर उनमें से एक ने वही घड़ा उठाकर उसके सिर पर दे मारा। और हँसते हुए बोला, “मैंने इन लोगों की मुर्दे के सिर पर घड़ा फोड़ने वाली रस्म अदा कर दी।”
फिर वे सभी ज़ोर-ज़ोर से ठहाके लगाकर हँसते हुए उस डिब्बे से नीचे उतर गए।
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