खरा रेशम
कथा साहित्य | लघुकथा सुनील कुमार शर्मा1 Dec 2024 (अंक: 266, प्रथम, 2024 में प्रकाशित)
पैदल चलने का ज़माना था।
कड़ी धूप में क़रीब दो कोस दूर शहर से रेशम लेकर लौटा घेवा राम, अपने माथे के पसीने को पोंछते हुए मालिकिन से बोला, “लो मालिकिन, रेशम।”
मालिकिन के साथ एक छायादार पेड़ की छाया में बैठी बहुत-सी महिलाएँ, उस मुलायम रेशम पर एक साथ हाथ फेरते हुए चिल्लाई, “घेवा राम! तू यह क्या उठा लाया? यह कोई रेशम है? यह तो बिल्कुल नक़ली रेशम है . . . तू अभी जाकर इसे बदलवा ला कहीं बाद में दुकान वाला मुकर न जाए।”
यह सुन कर बेचारा घेवा राम उदास होकर उल्टे पाँव वापस चल दिया। कुछ दूर चलने के बाद, वह थोड़ा विश्राम करने के इरादे से एक पेड़़ की घनी छाया में लेट गया। थके-हारे घेवा राम को ऐसी नींद आई कि, जब तक उसकी आँख खुली, शाम ढल चुकी थी। वह हड़बड़ा कर उठा और घबराया हुआ मरे-मरे क़दमों से वापस चल दिया।
जैसे ही वह गाँव में दाख़िल हुआ। उसने देखा मालिकिन तथा गाँव की अन्य महिलाएँ उसी के इंतज़ार में खड़ी हैं। वह समझ गया कि अब तो ख़ैर नहीं। उसने डरते-डरते वही रेशम वाला थैला मालिकिन के हाथ में दे दिया। वह सहमा हुआ, अपनी सफ़ाई में कुछ कहता, उससे पहले ही थैले में से रेशम निकाल कर, उसकी मालिकिन और अन्य महिलाएँ उसे शाबाशी देते हुए बोली, “घेवा राम तू अब खरा रेशम लाया है . . . पहले तो पता नहीं क्या कबाड़ उठा लाया था।”
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