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रात का सफ़र

 

घसीटे और रलदू ने जब अंग्रेज़ी की पूरी बोतल ख़ाली कर दी, तो घसीटा बोला, “रलदू यार! रात काफ़ी हो चुकी है, चल मैं तुझे तेरे घर छोड़ आता हूँ।” 

फिर दोनों उठकर दो मील दूर रलदू के गाँव की ओर चल दिए। रलदू के घर पहुँचने के बाद जब घसीटा वापिस चलने लगा तो यह कहते हुए, “यार घसीटे! तूने पी रखी है . . . सौ बात हो सकती है मैं तुम्हेंं अकेला नहीं जाने दूँगा . . . ” रलदू घसीटे के साथ चल पड़ा। फिर वापिस दोनों घसीटे के घर पहुँच गए। पर बात यहाँ भी ख़त्म नहीं हुईं। फिर जब रलदू वापिस अपने घर जाने लगा तो घसीटा उसका हाथ पकड़कर बोला, “. . . मैं भी इस हालत में तुम्हेंं अकेला नहीं जाने दूँगा . . .” फिर दोनों बहस करते हुए रलदू के घर की तरफ़ चल दिए। 

इस प्रकार वे दोनों सारी रात एक-दूसरे को घर पहुँचाते रहे। जब प्रातः चार बजे, मंदिर की घंटियाँ बझीं, दोनों का नशा उतर चुका था। थके-हारे दोनों रलदू के घास-फूस वाले कोठे पर पड़ी एक टूटी हुई चारपाई पर ढेर हो गए; क्योंकि खटखटाने के बाद भी रलदू की पत्नी ने घर की कुंडी नहीं खोली थी। 

प्रातः आठ बजे रलदू के एक साथी सुरजे ने रलदू को उठाने की कोशिश की, “रलदू यार! उठो दिहाड़ी का टाइम हो गया है।” 
रलदू बिना आँखें खोले बोला, “मैं आज देहाड़ी पर नहीं जा सकता।” 

“क्यों . . .?” सुरजे ने पूछा। 

"यार! रात के सफ़र ने मार दिया . . .” यह कहकर, रलदू ने करवट बदल ली। 

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