अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता सजल

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा यात्रा वृत्तांत डायरी बच्चों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

रेखाचित्र पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

साँप 

पगली रो रही थी, “मेरे घर रोज़ साँप निकलता है . . . मैं सबके आगे हाथ-पैर जोड़ चुकी हूँ; पर कोई मुझे साँप मारकर नहीं देता।” 

किसी ने उसे वार्ड के पंच के पास जाने कि सलाह दी। 

पंच बोला, “. . .कोई बुढ़ापा पेंशन की बात होती अथवा कोई पीले–गुलाबी राशनकार्ड या शौचालय बनवाने का चक्कर होता तो मैं ज़रूर तेरी मदद करता; पर यह साँप मारने की बात तो मेरी समझ में नहीं आ रही है . . . हाँ तू भूरे सरपंच के पास चली जा शायद वो कुछ कर सके।” 

सरपंच बोला, “वोटर-वाटर को तो मैं कोई तिकड़म लगाकर फँसा लेता; पर साँप को फँसाना तो मेरे बूते से बाहर है। तू ऐसा कर विपक्ष के नेता गजरू प्रसाद के पास चली जा, जिन्हें मैं फोन कर देता हूँ, वह कोई ना कोई समाधान ज़रूर निकाल लेंगे।” 

विपक्ष के नेता गजरू प्रसाद को जब साँप के बारे में पता चला तो वह उछल पड़े, “जब मैं इस विषय में विधानसभा में बोलूँगा तो प्रदेश में भूकंप आ जायेगा।” 

“भूकंप आने से क्या साँप भाग जायेगा?” पगली ने पूछा। 

“साँप की आप चिंता ना करे, वह हमें कुछ नहीं कहेगा; क्योंकि हम शिवभक्त हैं,” नेता जी ने पगली को समझाया। 

“आप शिवभक्त हैं, मैं तो नहीं?”पगली रुआँसी होकर बोली। 

“अब हमें ना आपकी चिंता है, ना साँप की . . . हमें तो मुद्दा मिल गया मुद्दा . . .” नेताजी लगभग नाचते हुए बोले। 

जिसे सुनकर, पगली दहाड़े मारकर रोने लगी, “मैं समझ गयी, अब यह साँप मेरे गले की फाँस बन गया है . . . यह ज़िन्दगी भर मेरा पीछा नहीं छोड़ेगा . . .”

अगले दिन विधानसभा में नेता जी आँखें मटकाकर चिल्ला रहे थे, “लोगों के घरों में साँप, चीते घुस रहे हैं, और यह निकम्मी सरकार सो रही है . . .” 

दूसरी तरफ़ पगली के घर में जीभ लापलपाता, आँखें मटकाता हुआ साँप मज़े से टहल रहा था, और पगली डर के मारे पसीने-पसीने हो रही थी। 

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

105 नम्बर
|

‘105’! इस कॉलोनी में सब्ज़ी बेचते…

अँगूठे की छाप
|

सुबह छोटी बहन का फ़ोन आया। परेशान थी। घण्टा-भर…

अँधेरा
|

डॉक्टर की पर्ची दुकानदार को थमा कर भी चच्ची…

अंजुम जी
|

अवसाद कब किसे, क्यों, किस वज़ह से अपना शिकार…

टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

लघुकथा

ग़ज़ल

कविता

सांस्कृतिक कथा

विडियो

उपलब्ध नहीं

ऑडियो

उपलब्ध नहीं