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उनसे खाए ज़ख़्म जो नासूर बनते जा रहे हैं 

 

2122     2122      2122      2122
 
उनसे खाए ज़ख़्म जो नासूर बनते जा रहे हैं 
ग़ैरों के शानो पर रख सर वो तो क़स्में खा रहे हैं
 
मेरे घर के सामने से ही तो गुज़रा है वो मंज़र 
यह तेरा कोई वहम हैं वो मुझे समझा रहे हैं
 
उनकी आँखों में से जो दरिया बह रहा है क्या पता है 
मगरमच्छी अश्क हैं या सच में वो पछता रहे हैं
 
किसका कैसे क्यों हुआ है दिनदहाड़े क़त्ल ये सब 
मेरे क़ातिल मुझसे ही तो पूछने को आ रहे हैं
 
हर किसी की ज़िन्दगी तो एक ही मायाजाल है 
जिसको हम सब अपने-अपने ढंग से सुलझा रहे हैं

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