अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता सजल

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा यात्रा वृत्तांत डायरी बच्चों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

रेखाचित्र पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

फ़ालतू 

“आप इस बछड़े को गौशाला में रखने का क्या लोगे?”उस बछड़े के मालिक ने गौशाला के गेट के पास कुर्सी पर बैठे एक वृद्ध से पूछा। 

“. . . एक हज़ार रुपया,” उस वृद्ध ने लापरवाही से उत्तर दिया। 

“कुछ कम नहीं हो सकता . . . ?”

“नहीं भाई! नहीं . . . पहले हो गौशाला में जगह नहीं है . . . आप बछड़ा ले ही आये हो; इसलिए मैंने आपको ना नहीं की।” 

“नहीं-नहीं, आप यह पकड़िये एक हज़ार रुपया . . . मैंने तो वैसे ही पूछ लिया था,” वह एक हज़ार रुपए के साथ बछड़े की रस्सी उस वृद्ध को पकड़ाते हुए बोला। 

वह वृद्ध जैसे ही, उस बछड़े की रस्सी पकड़कर ज़ोर से खींचते हुए, गौशाला में दाख़िल हुआ, अंदर से ज़ोर से आवाज़ आयी, “बाबा जी! आपने यह बछड़ा क्यों ले लिया? यहाँ तो पहले ही बछड़े फ़ालतू हैं।”

“अरे क्यों ज़ोर से चिल्ला रहा है . . . जो फ़ालतू है, उसे बाहर निकाल दे,” उस वृद्ध का रोषभरा स्वर सुनाई दिया।

उस बछड़े के अंदर जाते ही, दूसरा फ़ालतू बछड़ा बाहर कर दिया गया। जिसे देखकर वह आदमी अपने-आप को ठगा-सा महसूस करने लगा। क्योंकि वह समझ गया था दो-चार दिन बाद उसका बछड़ा भी फ़ालतू हो जायेगा। 

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

105 नम्बर
|

‘105’! इस कॉलोनी में सब्ज़ी बेचते…

अँगूठे की छाप
|

सुबह छोटी बहन का फ़ोन आया। परेशान थी। घण्टा-भर…

अँधेरा
|

डॉक्टर की पर्ची दुकानदार को थमा कर भी चच्ची…

अंजुम जी
|

अवसाद कब किसे, क्यों, किस वज़ह से अपना शिकार…

टिप्पणियाँ

पाण्डेय सरिता 2022/04/11 09:35 PM

उफ् आज ऐसी स्थिति है बछड़े की

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

लघुकथा

ग़ज़ल

कविता

सांस्कृतिक कथा

विडियो

उपलब्ध नहीं

ऑडियो

उपलब्ध नहीं