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सतरंगी रे

यौनिकता इंसानी युग और संस्कृति के अस्तित्व का अपृथक अंग है। यह मनुष्य द्वारा अपनी शारीरिक, मानसिक, रूमानी या प्रणय भावनाओं एवं इच्छाओं को ज़ाहिर करने का साधन होती है। यौनिकता के अधिकारों को मानवाधिकार कहते हैं, सामान्यतः लोगों को लगता है कि यौनिकता और अधिकारों में कोई संबंध नहीं है, जबकि अगर इसका गूढ़, गहन और गंभीर अध्ययन किया जाए तो पता चलता है कि ये दोनों विषय आपस में जुड़े हुए हैं। यौनिकता अंतर्राष्ट्रीय मानवाधिकारों की सूची में शामिल हैं। अपने यौन आकर्षण के आधार पर सेक्सुअलिटी को उन्मुक्त एवं स्वतंत्र रूप से प्रकट कर पाने के लिए कानून व्यवस्था के तहत संरक्षण मिलता है। समलैंगिकता का अर्थ है किसी व्यक्ति का समान लिंग के प्रति यौन आकर्षण। पुरुष का पुरुष के प्रति आकर्षण हो तो वो ‘गे’ कहलाता है एवं महिलाएँ ‘लेस्बियन’ और जो लोग दोनों लिंगों के प्रति आकर्षित होते हैं उन्हें द्वियौनिक या बाईसेक्सुअल कहा जाता है। अतः समलैंगिक, द्वियौनिक और किन्नर लोगों को मिलाकर एलजीबीटीक्यू समुदाय बनता है। एल अर्थात् ‘लेस्बियन‘, जी अर्थात् ‘गे‘, ‘बी’अर्थात् ‘बाईसेक्सुअल‘ तथा ‘टी’ अर्थात् ‘ट्रांसजेंडर‘ है। यह एक ऐसा समूह है जो समाज का अभिन्न और महत्वपूर्ण हिस्सा है।

इनका इतिहास उतना ही पुराना है जितना पृथ्वी पर जीवन। मिस्र के देवता ‘होरस’ और ‘सेत’ समलैंगिक थे और भारत की बात की जाए तो यहाँ इनकी स्थिति सम्मानीय रही।  इनका ज़िक्र वात्सयायन के ‘कामसूत्र’, वेद व्यास के ‘महाभारत’, कौटिल्य के ‘अर्थशास्त्र’ तथा ‘पुराण’ आदि में मिलता है। वर्तमान में ‘खजुराहो के मंदिर’ इसका सबसे अच्छा उदाहरण हैं, जो चंदेल वंश ने 11वीं सदी में बनवाए थे। वहाँ समलैंगिक संबंधों को दर्शाती हुई मूर्तियाँ हैं। अगर अध्ययन किया जाए तो समलैंगिक पक्ष हमारे इतिहास में काफ़ी दृढ़ता से दृष्टिगोचर होता है, पर तंग, संकुचित और अनुदार मानसिकता की वजह से इस भाव का सदैव दमन किया गया या इसको निकृष्ट समझा गया। पुरातन धर्मों में जैसे डोरियन, सीथियन या नॉर्मन समाज में यह एक आदर्श गुण माना जाता था।

दांते ने अपने गुरु लातिनी के बारे में लिखा है कि वह समलैंगिक थे। प्रसिद्ध दार्शनिक रूसो ने लिखा है कि युवावस्था के दौरान उसमें समलैंगिक संबंधों के प्रति गहरा आकर्षण था। कवि म्यूरे भी समलैंगिक थे और इस वजह से उनका जीवन मुश्किलों से भरा था क्योंकि इस चीज़ को सामाजिक मान्यता नहीं मिली थी।

महान मूर्तिकार माइकेल एंजेलो को भी समलैंगिक बताया गया है। उनके मूर्ति-शिल्प में समलैंगिक प्रेम नज़र आता है और वह कई पुरुषों के प्रति आकर्षित थे। यही नहीं, संसार के प्रसिद्ध दार्शनिक बेकन भी समलैंगिक थे। लेकिन ईसाई धर्म ने इसके साथ “नैतिकता” को जोड़कर इसको कुख्यात कर दिया। चर्च ने इसको अपराध की श्रेणी में रखा और तथाकथित अपराधियों को सज़ा देने का प्रावधान शुरू हुआ, जिसमें उनको मृत्यु दंड दिया जाता था और तरह-तरह की यातनाएँ देकर उनको जीवित जला दिया जाता था। भारत में ईसाई धर्म के आने के बाद भी ये कुछ हद तक मठों में पनपता रहा।

अगर मुग़ल काल की बात की जाए तो उन दिनों में हरम में स्त्रियाँ समलैंगिक या द्वियौनिक होती थीं। यहाँ तक कि उनके किन्नरों से भी संबंध होते थे और वह उन संबंधों से संतुष्ट रहती थीं। 1857 के विद्रोह के बाद ‘धारा-377’ को अप्राकृतिक अपराध के रूप में दर्ज कर दिया गया जबकि इससे पहले भारत में यह अपराध की श्रेणी में नहीं था।

प्रसिद्ध मानव-शास्त्री मार्गरेट मीड ने अपने अध्य्यन में समलैंगिकता को एक सामान्य व्यवहार के रूप में देखा है। कुछ क़बीलों में आज भी समलैंगिकता का काफ़ी प्रचलन है और कई जगह तो इससे जुड़े रिचुअल्स/रिवाज़ भी हैं। कुल मिलाकर ऐसे कई समाज हैं जहाँ होमोसेक्शुअलटी को लेकर कोई टैबू नहीं है।
LGBTQ का कारण जन्मजात हार्मोनल बदलाव है। विज्ञान के अनुसार स्त्री एवं पुरुष में ज़्यादा अंतर नहीं है सिवाय कुछ जैविक तत्वों के। पुरुष में कुछ स्त्रिगुण और हर स्त्री में कुछ पुरुष के गुण होते हैं, लेकिन मान्यताओं का असर हमारे मानस पर इतना अधिक गहरा है कि समलैंगिक शादियों में भी एक स्त्री हमेशा पुरुष की भूमिका में रहती है।

मनोविश्लेण सिद्धांत के जनक सिग्मंड फ्रायड ने 1905 में लिखा था, “अभी तक मुझे किसी पुरुष अथवा स्त्री के एक भी ऐसे मनेविश्लेषण से सामना नहीं पड़ा जिसमें समलैंगिकता का यथेष्ट तत्व न आता हो।” उनके अनुसार “समलैंगिकता निस्संदेह एक फ़ायदा नहीं है, लेकिन न तो शर्म का कारण है, न ही इसके विपरीत या गिरावट का। इसे एक बीमारी के रूप में वर्गीकृत नहीं किया जा सकता है। हमारा मानना है कि यह यौन क्रिया का एक बदलाव है . . . ” अर्थात उन्होंने कहा कि नैतिकता, शिष्टाचार के कारण समलैंगिक संबंधों को बुरा माना जाता है जबकि इसका कोई आधार है ही नहीं।

कैलिफ़ोर्निया विश्वविद्यालय की प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक एवलिन हूकर ने पहली बार अपने गहन अध्ययन और शोध के बाद इस मान्यता को अस्वीकार कर दिया था कि समलैंगिकता कोई मानसिक बीमारी या अपराध है। यह भी कम दिलचस्प नहीं है कि हूकर ने यह अध्ययन अपने किसी छात्र के अनुरोध पर किया जो स्वयं एक समलैंगिक था।

संसार की सबसे छोटी उम्र की फ़िनलैंड की राष्ट्रपति श्रीमती ‘सना मिरेला मारिन’ को भी, अपने जैविक माता-पिता के अलग होने के बाद, दो समलैंगिक महिलाओं ने पाला था।

सिनेमा और साहित्य समाज का आईना है। समय-समय पर विभिन्न विषयों पर अच्छी फ़िल्में बनती रहीं, कहानियाँ लिखी जाती रहीं लेकिन जब बात एलजीबीटीक्यू की आती है तो सेंसर बोर्ड उसको प्रतिबंधित कर देता है, जैसे बहुत ही मशहूर फ़िल्म ‘फ़ायर’ जिसमें पुरुष समाज प्रधान समाज से खिन्न तो स्त्रियाँ क़रीब आती हैं तो उनका बहिष्कार कर दिया जाता है। ऐसे ही ‘अनफ़्रीडम’ फ़िल्म में दो स्त्रियों का प्रेम स्वीकार नहीं किया जाता और उनको जेल में डालकर इलाज के नाम पर उनका सामूहिक बलात्कार किया जाता है।

अभी एक फ़िल्म देखी ‘अलीगढ़’ जिसमें एक विद्वान प्रोफेसर को समाज प्रताड़ित करता है और वह मृत्यु की तरफ़ बढ़ जाता है। इस फ़िल्म ने अंदर तक झकझोर दिया था।

सिनेमा को बड़े स्तर पर इस विषय पर बात करनी चाहिए, क्योंकि आम भारतीय तक, पुस्तकें नहीं बल्कि सिनेमा अपनी पहुँच बना पाया है। इससे एलजीबीटी वर्ग की छवि बदलने तथा उन्हें भी आम मनुष्य की तरह जीवन व्यतीत करने में सिनेमा को सहयोग देना होगा।

साहित्य में इश्मत चुगतई जी की कहानी ‘लिहाफ़’ काफ़ी महत्वपूर्ण है, जहाँ समलैंगिकता की बात की गई है। दूसरी तरफ़ चित्रा जी का उपन्यास ‘पोस्ट बॉक्स नं० 203 नाला सोपारा’ में बताया गया है कि किस प्रकार केवल किन्नर भर होने से बच्चे अपने परिवार से दूर कर दिए जाते हैं। उपन्यास में मुख्य किरदार बार-बार प्रश्न भी करता है कि यदि आँख की विकलांगता, टाँग की विकलांगता या अन्य किसी शरीर के अंग की विकलांगता के कारण लोग अपने बच्चे को घर से बाहर नहीं फेंकते तो केवल लिंग विकलांगता के बच्चों को इतनी बड़ी सज़ा क्यों?

आँकड़ों के मुताबिक एलजीबीटी वर्ग की लगभग 25 लाख लोगों की जनसंख्या है जो कि बुरी स्थिति में है। उच्चतम न्यायालय के फ़ैसलों से इनकी स्थिति में सुधार की कुछ उम्मीद है किन्तु भारतीय समाज इन्हें कहाँ तक अपना पाएगा, इस पर कुछ कहा नहीं जा सकता।

2018 में चीफ़ जस्टिस दीपक मिश्रा अपने कार्यकाल के आख़िरी दिनों के अति महत्वपूर्ण फ़ैसलों में से एक सुना रहे थे। वहाँ मौजूद सब लोग भावुक हो गये, सब की आँखों में ख़ुशी के आँसू थे। धारा 377 को मनमाना क़रार देते हुए और व्यक्तिगत पसंद को सम्मान देने की बात कहते हुए सुप्रीम कोर्ट ने दिसंबर 2013 के अपने ही फ़ैसले को पलट दिया। एक तरह से सुप्रीम कोर्ट ने दिल्ली हाई कोर्ट के 2009 के फ़ैसले को ही सही ठहराया था।

धारा 377 के तहत समलैंगिकता को आपराधिक कृत्य से हटाकर दो बालिगों को सहमति से संबंध बनाने का हक़ देते हुए सुप्रीम कोर्ट ने इसके सामाजिक और संवैधानिक परिप्रेक्ष्य में कई पहलुओं की चर्चा की। सुप्रीम कोर्ट की ये टिप्पणियाँ सिर्फ़ धारा 377 ही नहीं अंग्रेज़ों के ज़माने के ऐसे तमाम क़ानूनों के सिलसिले में बेहद महत्वपूर्ण थीं।

संविधान द्वारा देश के नागरिकों को मिले मौलिक अधिकारों को सबसे अहम मानते हुए सुप्रीम कोर्ट ने ये टिप्पणियाँ की थीं:

  1. सहमति से बालिगों के बीच बने समलैंगिक रिश्ते नुक़सानदेह नहीं हैं। कोर्ट का कहना रहा कि आईपीसी की धारा 377, संविधान के अनुच्छेद 14 के तहत मौजूदा रूप में सही नहीं है।

  2. सेक्शुअल ओरिएंटेशन यानी यौन रुझान बायोलॉजिकल है और इस पर किसी भी तरह की रोक संवैधानिक अधिकारों का हनन है।

  3. कोई भी अपने व्यक्तित्व से बच नहीं सकता है और इसके लिए समाज अब बेहतर है। मौजूदा हालत में हमारे विचार-विमर्श के विभिन्न पहलू नज़र आते हैं।

  4. हमारी विविधता को स्वीकृति देनी होगी और इसके लिए व्यक्तिगत पसंद को भी सम्मान देना होगा।

  5. LGBTQ के पास भी ऐसे ही समान अधिकार हैं— Right to Life उनका अधिकार है और ये सुनिश्चित करना अदालत का काम है।

  6. जीवन का अधिकार मानवीय अधिकार है, जिसके बग़ैर बाक़ी अधिकार औचित्यहीन हैं और इसके लिए संवैधानिक लोकतांत्रिक व्यवस्था में परिवर्तन ज़रूरी है।

  7. सबको समान अधिकार सुनिश्चित करने की जरूरत है और ऐसा होने देने के लिए समाज को पूर्वाग्रहों से मुक्त होना चाहिये।

इन सबके अतिरिक्त, संविधान पीठ द्वारा कही गयी सबसे ख़ास बात—‘हर बादल में इंद्रधनुष खोजना चाहिए’। दिलचस्प बात ये है कि LGBTQ समुदाय भी ऐसे मौकों पर इंद्रधनुषी, सतरंगी झंडा ही लहराता है।

भारतीय समाज का तथाकथित नैतिक, सामाजिक व्यवहार या जीवन-संस्कार, आडंबर-प्रियता, इस स्वतंत्रता और स्वाधीनता को प्रतिबंधित रखना चाहते हैं, इसलिए इस तरह के सहज और सरल प्राकृतिक मुद्दे को अप्राकृतिक बना दिया जाता है। ना तो यह कोई बिमारी है, न ही अप्राकृतिक है। जो जिस रूप में पैदा हुआ है, उसे उसी रूप में स्वीकार करना होगा। हम केवल स्त्री–पुरुष आकर्षण को सामान्य मानते हैं लेकिन इसके अतिरिक्त भी इसके कई रूप होते हैं और उन रूपों को हम असामान्य कह देते हैं जो कि बिल्कुल ग़लत है। प्रेम, जेंडर के सामाजिक नियमों से ऊपर है। हमारे भारतीय समाज की बहुत बड़ी कमी है कि हम ख़ुद अपने शरीर को लेकर सदैव अपराधबोध से ग्रस्त रहते हैं, फिर दूसरों की बात ही क्या?

कई देशों में समलैंगिकों के संगठन बने हुए हैं। परंतु अभी भी लगभग सभी जगहों पर समलैंगिकों का मज़ाक उड़ाया जाता है और उन्हें अनैतिक माना जाता है जो कि दुखद है।

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