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अनकही

घनिष्ठता उससे आदिकालीन थी
और संज्ञाकरण लगभग असंभव सा
उस प्रेयस से प्रेम ऐसा कि 
मैं जब भी देखती उसकी मुखाकृति 
मेरे हृदय के यज्ञपात्र में 
आदिकाल से लेकर आज तक की 
संपूर्ण स्मृतियों की प्रचंड अग्नि 
प्रकाशित और स्थापित हो जाती  
और ज्ञान के मद में चूर बुद्धि 
स्वतंत्र हो बह जाती 
किसी उन्मुक्त नदी की तरह
 
प्रेमालाप न हुआ हमारे मध्य कभी
लेकिन उसके कंठ से 
निकला अपना नाम सुनना ही 
मेरे अस्तित्व को अर्थ दे जाता 
जैसे, संसार में उसकी आवाज ही 
श्रवणीय हो
बाक़ी सब केवल कोलाहल
 
कुछ अनकहे प्रसंग और प्रकरण 
ना मंद पड़ते हैं ना प्रचंड होते हैं 
बस सुलगते रहते हैं 
और मौन का आश्रय लेते हैं 

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