हिमालय के सान्निध्य में
काव्य साहित्य | कविता अनुजीत 'इकबाल’15 Dec 2024 (अंक: 267, द्वितीय, 2024 में प्रकाशित)
तुम्हारे मौन में वह गुंजन है
जो समय के पार कहीं ठहर जाती है,
और मैं, अपनी विह्वलता लिए
तुम्हारी परछाईयों के वृत्त में घूमती हूँ
तुम कितने असीम, कितने अपरिचित
पर फिर भी, मेरे हर शब्द, हर आहट के स्रोत
मेरे अस्तित्व पर तुम्हारे हस्ताक्षर
तुम्हारी चुप्पी में
कोई कथा ठहरी है
जिसे किसी प्राचीन ऋषि ने अधूरा छोड़ दिया था
किसी प्रतीक्षा का अंत—
या शायद आरंभ
मैं तुमसे प्रश्न करती हूँ
और तुम उत्तर नहीं,
बस एक दिशा देते हो
यदि मैं इस प्रश्न-पथ पर भटक जाऊँ
यदि मेरी व्यथा के बिंदु मुझे बाँध लें
तब तुम्हारी शांत श्वास मुझे पुकारेगी
तुम्हारे सर्द पत्थरों की ऊष्मा
मुझे मेरे भीतर का ताप भुला देगी
हे हिमालय,
तुम्हारे सानिध्य में
वह अनवरत हलचल है
जिसमें अनंत स्थिरता है
मैं वहाँ सब कुछ खोकर
स्वयं को पुनः रच लूँगी
अन्य संबंधित लेख/रचनाएं
टिप्पणियाँ
कृपया टिप्पणी दें
लेखक की अन्य कृतियाँ
कविता
- अनकही
- अवधान
- उत्सव
- उसका होना
- कबीर के जन्मोत्सव पर
- कबीर से द्वितीय संवाद
- कबीर से संवाद
- गमन और ठहराव
- गुरु के नाम
- चैतन्य महाप्रभु और विष्णुप्रिया
- तुम
- दीर्घतपा
- पिता का पता
- पिता का वृहत हस्त
- प्रेम (अनुजीत ’इकबाल’)
- बाबा कबीर
- बुद्ध आ रहे हैं
- बुद्ध प्रेमी हैं
- बुद्ध से संवाद
- भाई के नाम
- मन- फ़क़ीर का कासा
- महायोगी से महाप्रेमी
- माँ सीता
- मायोसोटिस के फूल
- मैं पृथ्वी सी
- मैत्रेय के नाम
- मौन का संगीत
- मौन संवाद
- यात्रा
- यायावर प्रेमी
- वचन
- वियोगिनी का प्रेम
- शरद पूर्णिमा में रास
- शाक्य की तलाश
- शिव-तत्व
- शिवोहं
- श्वेत हंस
- स्मृतियाँ
- स्वयं को जानो
- हिमालय के सान्निध्य में
- होली (अनुजीत ’इकबाल’)
यात्रा वृत्तांत
सामाजिक आलेख
पुस्तक समीक्षा
लघुकथा
दोहे
विडियो
उपलब्ध नहीं
ऑडियो
उपलब्ध नहीं