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प्रेम पत्र

 

हे अरण्यक
जब पहली बार तुम्हारी सुधि आई
तो श्यामल बादलों को देखा
जो आकाश में विचरते थे
मानो मेरे हृदय की व्यथा
तुम तक पहुँचाने को उत्सुक हों
 
क्या प्रेम भी कभी
ऋषि-कुंज में बसी कोई धुन बनकर
वनविहंगों के स्वर में लौटता है? 
क्या किसी झील में
चंद्रमा अपना प्रतिबिंब छोड़कर
फिर उसी जल में लुप्त हो जाता है
जहाँ प्रथम प्रेम पत्र की मादकता झरी थी? 
 
तुम मुझे मिले
जैसे किसी योगी की हठ साधना में
कोई मधुर स्वप्न जाग उठा हो
जैसे किसी अधूरे वाक्य को
अचानक पूर्ण करने वाला शब्द मिल जाए
या जैसे किसी तपस्विनी की सूनी दृष्टि में
एक क्षण को वसंत ठहर जाए
 
जैसे किसी यज्ञ की अधूरी आहुति को
अचानक कोई दिव्य मंत्र मिल जाए
जैसे किसी उजड़े मंदिर की टूटी घंटियों में
फिर से राग बिहाग गूँज जाए
 
तुम मुझे मिले
उसी मेघदूत की तरह
जो प्रेयसी तक संदेश नहीं
बल्कि प्रेम का पूरा आकाश ले जाता है
तुम मिले उस गूँगे हृदय की तरह
जो प्रणय का श्लोक रचता तो है
पर अधरों तक लाने का साहस नहीं कर पाता
 
क्या तुम्हें भी कभी ऐसा लगा
कि प्रेम किसी फूल पर गिरी
ओस-बूँद जैसा है
जो छूते ही विलीन हो जाता है
पर अपने स्पर्श की कोमलता को
अमर कर जाता है? 
 
क्या तुम्हें भी कभी ऐसा लगा
कि विरह कोई अंधकार नहीं
बल्कि एक दिव्य अग्नि है
जिसमें आत्मा तपकर कुंदन हो जाती है? 
 
तुमसे मिलना जैसे
दग्ध धरा पर प्रथम वर्षा की शीतल बूँदें गिरें
या जैसे प्रखर रवि के ताप में
सहसा चंद्रिका अपना शीतलता बरसाए
जैसे तुम्हारी छाँव में
हर तृष्णा विश्राम पाए
और शून्य में विलीन होकर
केवल वही शेष रह जाए
जो अनंत, अचल और निर्विकार है

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