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अवधान

ये प्रेम और मेरी चेतना का लय होना तुम संग
शून्य आकाश में गमन करने का पर्याय है
तुम्हारे शब्दों के आरोह अवरोह के मध्य
उस मौन घोष में प्रतिध्वनित होती है
समग्र ब्रह्मांड की नीरवता
 
तुम्हारे दृगों को देखा तो जाना कि
परम गूढ़ दो गवाक्षों के मध्य से 
झाँक रहा था . . . मुस्कुराते हुए
लेकिन प्रिय, इस अनुभूति का संज्ञाकरण संभव नहीं
तुम्हारे शब्द राग दीपक का विस्तार हैं
जिसमें सहस्त्रों शलभों का मान मर्दन होता है
तुम्हारी श्वासप्रश्वास का लिप्सित देवालय
आकुल करता मुझे, अंगीकार करने को
वो एक संतृप्ति . . . पायस सी
तुम से कुछ कहना चाहूँ तो कंठभंग हो जाता है
स्वरग्रंथियों का क्या मूल्य
जहाँ तुम स्वयं अपनी प्रतिष्ठा में खड़े
आलाप ले रहे हो
 
तुम्हारे प्रेम में पड़ कर मैंने जाना कि
असंख्य जलकणों के नाच के मध्य
नदी शांत बहती है
 
प्रिय, मैं तुम्हारे अवधान में हूँ

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