अवधान
काव्य साहित्य | कविता अनुजीत 'इकबाल’1 Nov 2020 (अंक: 168, प्रथम, 2020 में प्रकाशित)
ये प्रेम और मेरी चेतना का लय होना तुम संग
शून्य आकाश में गमन करने का पर्याय है
तुम्हारे शब्दों के आरोह अवरोह के मध्य
उस मौन घोष में प्रतिध्वनित होती है
समग्र ब्रह्मांड की नीरवता
तुम्हारे दृगों को देखा तो जाना कि
परम गूढ़ दो गवाक्षों के मध्य से
झाँक रहा था . . . मुस्कुराते हुए
लेकिन प्रिय, इस अनुभूति का संज्ञाकरण संभव नहीं
तुम्हारे शब्द राग दीपक का विस्तार हैं
जिसमें सहस्त्रों शलभों का मान मर्दन होता है
तुम्हारी श्वासप्रश्वास का लिप्सित देवालय
आकुल करता मुझे, अंगीकार करने को
वो एक संतृप्ति . . . पायस सी
तुम से कुछ कहना चाहूँ तो कंठभंग हो जाता है
स्वरग्रंथियों का क्या मूल्य
जहाँ तुम स्वयं अपनी प्रतिष्ठा में खड़े
आलाप ले रहे हो
तुम्हारे प्रेम में पड़ कर मैंने जाना कि
असंख्य जलकणों के नाच के मध्य
नदी शांत बहती है
प्रिय, मैं तुम्हारे अवधान में हूँ
अन्य संबंधित लेख/रचनाएं
टिप्पणियाँ
कृपया टिप्पणी दें
लेखक की अन्य कृतियाँ
कविता
- अनकही
- अवधान
- उत्सव
- उसका होना
- कबीर के जन्मोत्सव पर
- कबीर से द्वितीय संवाद
- कबीर से संवाद
- गमन और ठहराव
- गुरु के नाम
- चैतन्य महाप्रभु और विष्णुप्रिया
- तुम
- दीर्घतपा
- पिता का पता
- पिता का वृहत हस्त
- प्रेम (अनुजीत ’इकबाल’)
- बाबा कबीर
- बुद्ध आ रहे हैं
- बुद्ध प्रेमी हैं
- बुद्ध से संवाद
- भाई के नाम
- मन- फ़क़ीर का कासा
- महायोगी से महाप्रेमी
- माँ सीता
- मायोसोटिस के फूल
- मैं पृथ्वी सी
- मैत्रेय के नाम
- मौन संवाद
- यात्रा
- यायावर प्रेमी
- वचन
- वियोगिनी का प्रेम
- शरद पूर्णिमा में रास
- शाक्य की तलाश
- शिव-तत्व
- शिवोहं
- श्वेत हंस
- स्मृतियाँ
- स्वयं को जानो
- होली (अनुजीत ’इकबाल’)
सामाजिक आलेख
पुस्तक समीक्षा
लघुकथा
दोहे
विडियो
उपलब्ध नहीं
ऑडियो
उपलब्ध नहीं