बुद्ध से संवाद
काव्य साहित्य | कविता अनुजीत 'इकबाल’15 Jun 2019
मैं आवाहन तुम्हारा करती थी
अर्पित प्रेम चरणों में करती थी 
अंजुली में भर कर अपना अस्तित्व 
तुम्हारी धारा में विसर्जित करती थी 
अपनी तुरही हृदय पे थामे चलती थी 
तान से विस्मित शशि को करती थी 
मस्ती में अनवरत तुम्हें बुला कर
ब्रह्मांड को निरंतर पवित्र करती थी 
स्याह रातों में साधना करती थी 
नक्षत्रों के उत्सव नैनों में भरती थी 
सम्यक बोध को पाने ख़ातिर
शून्य की कंदरा में रहती थी 
संबुद्ध दृष्टि आ रही थी 
सुधा वृष्टि हो रही थी
वैराग्य से अनुरंजित होकर
सुधि निस्पंदित हो रही थी 
क्षुधा चित्त को भा रही थी
स्मृति सुप्ति को घेर रही थी 
महा स्वप्न में तुम दर्शन देकर
अनहद के पार बुला रहे थे 
स्त्रोतापन्न साधना सिखा रहे थे 
सप्त चक्र भेदन करा रहे थे 
मुझे निज में व्यवस्थित करा कर 
अतिचारों से विलग करा रहे थे 
उर में तटस्थता प्राप्त करती थी 
जयघोष परम का करती थी 
महा समाधि की धूनी रमा कर 
तुम में समाहित ख़ुद को करती थी 
अंतस में हिलोर उठती थी 
मन मंत्र मुग्ध हो जाता था 
क्षण भर पहले मैं सृष्टि में होती 
फिर ख़ुद सृष्टि हो जाती थी
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