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स्त्री होने की कविता

 

सुनो लड़कियो 
तुम्हारी पलकों पर जो चुप्पियाँ हैं, 
वे केवल मौन नहीं
वे पीढ़ियों की परछाइयाँ हैं
उन्हें किसी उजले मेले में
नीलाम कर आओ 
 
प्रेम को ओढ़ लो 
जैसे भोर की पहली धूप
न शर्त, न अनुमति, 
बस उतनी सहजता से प्रेम करो
जितनी सहज है साँस लेना
 
हर उस नायिका को
नया नाम दो
जिसने “ना” कहा या विद्रोह किया 
और दुनिया ने उसे
बुरी औरत ठहरा दिया
 
देह का अधिकार 
बाहर से नहीं, भीतर से आता है
यह देह
विवाह, कुल या वंश की जागीर नहीं 
यह उस आत्मा की है
जो इसमें निवास करती है

अमलतास और गुलमोहर को
पाठशाला की दहलीज़ पर रोप दो 
जहाँ बेटियाँ 
न केवल झुकना
बल्कि उठना भी सीखें 
 
इतिहास के पन्नों से
धूल झाड़ो 
रज़िया सुल्तान को
केवल “इकलौती महिला शासक” कहने की बजाय
उसे उस सिंहासन पर बैठाओ
जहाँ शासक केवल लिंग नहीं
बल बुद्धि से पहचाने जाते हैं
 
प्रेम की गणना मत करो 
कि कितनों से किया
यह देखो 
क्या कभी स्वयं से भी किया? 
 
हर स्त्री के हृदय में
एक नन्ही-सी चिंगारी रख दो
जो समय आने पर
सिर्फ़ आग न बने
बल्कि पूरा दृश्य ही बदल दे
 
हाँ, 
दुनिया इसे कहेगी 
विद्रोह, उन्माद, 
या क़दमों का बहक जाना
पर तुम जान लो-
यह तुम्हारा सौंदर्यपूर्ण अधिकार है।

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