पिता का वृहत हस्त
काव्य साहित्य | कविता अनुजीत 'इकबाल’15 Nov 2019
सारा ब्रह्मांड समाया है
पिता श्री के हस्त में
कितना सार अवलंबित है
विधिस्मंत इस तथ्य में।
जिसने भी कहा है
या तो उसने इस
प्रत्यक्ष ज्ञान को जिया
या मात्र बोध प्राप्त करने का
उपाय भर किया।
अन्तःकरण पर स्थापित
चिंतन का अतिरेक
पिता विस्तार है
ब्रह्म का,
समझ गई यह भेद।
पिता श्री मेरे आकाश
जिनमें प्रमुदित हैं
अस्तित्व के राग
और आशाओं के
अलौकिक नाद
उम्मीदों के नभचर
करते कलरव
उनके उत्संग में,
संचित रहते
अनुराग और विराग
उनके अवलंब में।
बहुत दुष्कर होता है
व्यथा के क्षण में
अबद्ध और निरंकुश
जीवन का क्रीड़ोद्यान
उसी क्षण पिता श्री का
वृहत हस्त बनता
शक्ति का प्रश्वास।
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