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पहाड़ों में जन्मदिन—भवाली से आगे, तितोली की शान्ति में

 

(Diary from the Himalayan foothills, written on a mist-laced morning in October) 

 

इस साल हमने तय किया कि बेटी का जन्मदिन शहर की भागदौड़, रेस्तराँ और मोमबत्तियों के बीच नहीं, बल्कि पहाड़ों की गोद में मनाएँगे, जहाँ समय धीमा चलता है और हवा में जंगल की ख़ुश्बू घुली रहती है। 

यात्रा का गंतव्य तय हुआ, भवाली से लगभग सात किलोमीटर आगे, चीड़ के गहरे जंगलों के बीच छिपा एक शांत घर, “माँ गंगा होमस्टे”!

भवाली से आगे की सड़क थोड़ी अधूरी, कहीं ताज़ा कटी हुई चट्टानों के निशान लिए, लेकिन यात्रा में कोई कठिनाई नहीं थी। 

हर मोड़ पर हवा ठंडी होती जाती और चीड़ों की क़तारें किसी पुराने पहाड़ी गीत पर नृत्यरत थीं, सूरज की किरणें जब बादलों से छनकर आतीं, तो सारा रास्ता सुनहरी धूल से भर उठता। 

लखनऊ से लगभग ४४५ किलोमीटर सफ़र तय करके, शाम ढलने से पहले हम ‘माँ गंगा होमस्टे’ पहुँचे। यह एक सुंदर पहाड़ी घर था। 

दरवाज़े पर बिष्ट परिवार के सब लोग मिले, बातों में ऐसा अपनापन था कि जैसे बरसों से जानते हों। 

कमरे खुले और साफ़-सुथरे थे, हर खिड़की से हिमालय की बर्फ़ीली चोटियाँ दिख रही थीं। जब चूल्हे पर गरम चाय की ख़ुश्बू फैली, तो लगा कि यही सच्ची विलासिता है, सादगी में भरा स्वाद और प्रेम!

यहाँ समय ठहरकर मुस्कुरा रहा था। रात को उन्हीं के खेत की सब्ज़ी खाने को मिली, ऑर्गेनिक फ़ूड। कद्दू, आलू की सब्ज़ी और रायता, स्वाद बहुत अच्छा और साधारण। 

अगली सुबह जब नींद खुली, तो खिड़की से बाहर फैला दृश्य कुछ अलौकिक था, त्रिशूल, नंदा देवी और पंचाचूली की चोटियाँ, सुनहरी रोशनी में नहाई हुईं . . . हवा में चीड़ की सुगंध थी, और पहाड़ी पक्षियों का कलरव। 

हम सब बरामदे में बैठ गए, गरम चाय हाथों में थी, सामने हिमालय, बस यही क्षण था जिसे कोई कैमरा क़ैद नहीं कर सकता। ऐसे दृश्य में कोई शब्द नहीं सूझते, सिर्फ़ मौन, जो प्रार्थना बन जाता है। मैं सुबह पाँच से नौ बजे तक बाहर बैठी हिमालय को देख मन में बातें करती रही। 

‘माँ गंगे होमस्टे’ में खाना किसी फ़ार्म-टू-टेबल रेस्तराँ से कहीं ज़्यादा सच्चा है। सुबह नाश्ते में आलू के पराँठे और प्रेमा आंटी के हाथ का रायता और आम का अचार, सब कुछ ताज़ा और प्रेम से बना। 

दोपहर तक धूप जब बरामदे में उतरती, तो वहाँ का हर कोना हल्की गरमाहट से भर जाता। 

होम स्टे के लोगों ने कहा, “यहाँ कोई मेहमान नहीं, सब अपने हैं।” 

और सच में, कुछ ही घंटों में हमें भी ऐसा लगा मानो हम किसी रिश्तेदार के घर आए हों, जहाँ कोई औपचारिकता नहीं थी, बस अपनापन था। 

जिस दिन बेटी का जन्मदिन था उस दिन कैंची धाम दर्शन को गए। होमस्टे से सिर्फ़ २० मिनट का फ़ासला था। कैंची से आए तो देखा प्रेमा आंटी के परिवार के बच्चों ने बेटी के जन्मदिन की पूरी तैयारी ख़ुद कर रखी थी। 

किसी ने जंगल से जंगली फूल तोड़े, किसी ने कार्ड बनाया, और किसी ने पूरी दीवार सजा दी। हम भवाली से केक ले गए थे लेकिन सबसे मीठा उत्सव बच्चों का प्यार था। उन्होंने उसे “हैप्पी बर्थडे” गाते हुए उपहार दिए, फिर सबने पार्टी की और नाचते रहे। बेटी की आँखों में जो चमक थी, वह किसी शहर की रोशनी से कहीं ज़्यादा उजली थी। 

उस पल मैंने सोचा, शायद पहाड़ों में जन्मदिन मनाना सिर्फ़ एक फ़ैसला नहीं, एक अनुभव था, एक स्मृति, जो हमेशा जीवित रहेगी। बेटी बड़ी होकर भी याद रखेगी कि वहाँ कितने प्यारे बच्चे थे जिन्होंने बिना कहे उसका दिन बना दिया। 

अगले दिन हम उधर की एक ऊँची चोटी पर ट्रैक करने निकल पड़े। चारों ओर बुरांश के पेड़, जंगली गुलाब की झाड़ियाँ और नाशपाती, आडू, सेब के बाग़ फैले थे। हवा में देवदार की सुइयों की ख़ुश्बू घुली थी, ठंडी, नम, और पहाड़ी फूलों की मिठास से भरी हुई। रास्ते में कहीं कोई तीतर झाड़ियों से फुदक कर निकल जाता, कहीं किसी डाल से लटकती गिलहरी झूलती दिखती। ऊपर कहीं से काफल के पौधे भी दिख रहे थे, और दूर बादलों के बीच से हिमालय की चोटियाँ झाँक रही थीं। हर क़दम, हर मोड़ किसी कविता-सा लगा जैसे धरती ख़ुद कोई गीत गुनगुना रही हो। 

हम सब पुराने देवदार और चीड़ के जंगलों से गुज़रते हुए उस ऊँची चोटी तक पहुँचे, जहाँ से पूरा भवाली नीचे फैला था, उसकी सड़कें, उसकी छतों पर रखे पानी की टंकियाँ और दूर-दूर तक फैली धुँध। बहुत नीचे कैंची धाम चमक रहा था और सामने की ओर धूप में नहाया रानीखेत दिखाई दे रहा था मानो पहाड़ की गोद में शान से कोई बैठा हो। 

बच्चों ने पेड़ों से गिरे पत्ते और जंगली फूल समेटे। 

उनकी यह मासूमियत शायद वही वजह है जिसके लिए शायद अब मैं बार-बार पहाड़ लौटूँगी, ख़ुद को फिर से खोजने। 

रात ढली तो आसमान तारों से भरा था। सब बच्चे नीचे के तल पर खेल रहे थे। चारों बच्चों की हँसी की गूँज फैली हुई थी और सच मानिए, उस समय अपने बच्चों की ख़ुशी देखकर, मुझमें पूरे पहाड़ की ख़ुशी समा गई। 

चार दिन बिताए वहाँ। तीनों वक़्त के भोजन के अलावा भी प्रेमा आंटी कुछ न कुछ खाने का भेजती रहती थीं। बार-बार कमरा साफ़ करवा देती थीं और चाय पिलाती रहती थीं। एक दिन कढ़ी भी खाई। 

अंततः, विदा लेने का दिन आ गया। मन नहीं था वापस आने का लेकिन, रुका भी कब तक जाए। होमस्टे के सब लोग हमारा सामान उठा कर कार तक ले आए, मैं मना करती रही, लेकिन यह उनका प्यार था। उस दिन हिमालय धुँध में ढका था, जैसे हमें चुपचाप आशीर्वाद दे रहा हो। 

प्रेमा आंटी ने मुस्कुराते हुए कहा कि “सड़क भी बन जाएगी जल्दी।” 

मैंने कहा, “रास्ते तो पहले ही बन गए हैं, हमारे दिलों में।” 

उन्होंने विदा लेते हुए खेत की ओस-भीगी पत्तियों में से कुछ ताज़ी सब्ज़ियाँ तोड़ कर दीं जैसे हरियाली का कोई छोटा आशीर्वाद साथ बाँध लिया हो। 

फिर घर के बड़े जिस सहजता से बच्चों को सिक्के थमा देते हैं, वैसे ही उन्होंने भी कुछ नोट बढ़ा दिए जन्मदिन के आशीर्वाद के रूप में, बिना दिखावे, बिना औपचारिकता के। क्षणभर को लगा, सादगी भी कितनी सम्पन्न हो सकती है। 

भवाली की ओर उतरते हुए गाड़ी धीमे-धीमे मोड़ों से गुज़री। पीछे रह गए चीड़ के जंगल, और साथ रह गई एक शान्ति, जो उस घर में मिली थी। 

यह यात्रा सिर्फ़ एक जन्मदिन की नहीं थी। 

यह एक स्मरण था कि सच्चा सुख विलासिता में नहीं, सादगी और अपनापन में छिपा होता है। 

माँ गंगा होमस्टे जैसे ठिकाने हमें याद दिलाते हैं कि हॉस्पिटैलिटी का अर्थ महँगे कमरे नहीं, बल्कि प्यार और आशीर्वाद से भरे हाथ और मुस्कुराती आँखें हैं। 

कैसे पहुँचें:

स्थान: गाँव तितोली, भवाली से 7 किमी दूर, चीड़ के जंगलों के बीच (उत्तराखंड) 
कैसे पहुँचे: नैनीताल या हल्द्वानी से टैक्सी लेकर भवाली होते हुए तितोली 
क्या खास: हिमालय के दृश्य, स्थानीय घर का शुद्ध भोजन और असली पहाड़ी जीवन की झलक। 
सबसे उपयुक्त मौसम: सारा साल, लेकिन अक्टूबर से मार्च, जब आसमान साफ़ और बर्फ़ की चोटियाँ दूर तक दिखती हैं। 

“कभी-कभी यात्राएँ हमें कहीं नहीं ले जातीं, बल्कि हमें वहाँ लौटा लाती हैं, जहाँ हम सच में “संबद्ध” होते हैं।” 

पहाड़ों में जन्मदिन- भवाली से आगे, तितोली की शांति में

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