मन- फ़क़ीर का कासा
काव्य साहित्य | कविता अनुजीत 'इकबाल’1 Jan 2020 (अंक: 147, प्रथम, 2020 में प्रकाशित)
मेरी आकाशगंगा में
केवल एक नक्षत्र प्रदीप्त था,
असंख्य तारागणों की रोशनी लिए हुए।
पर, धीरे धीरे वो रोशनी
मद्धिम पड़ने लगी तो
रतजगों में डूबी मैं
अपने हताश और तमसावृत कक्ष से
उड़ा रही हूँ
दुआओं के परिंदे
परिंदे फड़फड़ा रहे हैं अब
सुदूर बगदाद की
ग़ौस-ए-पाक नीली दरगाह पर
शायद, सूफ़ियों के दर पर
दुआएँ ऐसे ही
पंख झटकारती हैं।
दरगाह के बाहर
अनहद बाजा लिए
एक फ़क़ीर बैठा है
दुआओं के परिंदे देख
वो अपना ख़ाली कासा देख
मंद मंद मुस्कुराता है
लोबान की सुगंध
वायु में घुल जाती है और
परिंदे स्वतः अदृश्य हो जाते हैं
सूफ़ी उठ खड़ा हुआ
और वर्तुल नृत्य कर रहा है
बाएँ हाथ से ब्रह्मांड और दाएँ से
पृथ्वी घुमा रहा है
अब, असंख्य आकाशगंगाएँ
दिखने लगीं, और मैं
एक नक्षत्र के लिए उद्वेलित थी
अनबूझे जज़्बात लिए
खड़ी हूँ अपनी समग्रता लिए
मानो चित्त ने विस्तार लिया
मन सूफ़ी का ख़ाली कासा हुआ
अज्ञानतिमिर का निदान हुआ
अन्य संबंधित लेख/रचनाएं
टिप्पणियाँ
कृपया टिप्पणी दें
लेखक की अन्य कृतियाँ
कविता
- अनकही
- अवधान
- उत्सव
- उसका होना
- कबीर के जन्मोत्सव पर
- कबीर से द्वितीय संवाद
- कबीर से संवाद
- गमन और ठहराव
- गुरु के नाम
- चैतन्य महाप्रभु और विष्णुप्रिया
- तुम
- दीर्घतपा
- पिता का पता
- पिता का वृहत हस्त
- पैंडोरा बॉक्स
- प्रेम (अनुजीत ’इकबाल’)
- बाबा कबीर
- बुद्ध आ रहे हैं
- बुद्ध प्रेमी हैं
- बुद्ध से संवाद
- भाई के नाम
- मन- फ़क़ीर का कासा
- महायोगी से महाप्रेमी
- माँ सीता
- मायोसोटिस के फूल
- मैं पृथ्वी सी
- मैत्रेय के नाम
- मौन का संगीत
- मौन संवाद
- यात्रा
- यायावर प्रेमी
- वचन
- वियोगिनी का प्रेम
- शरद पूर्णिमा में रास
- शाक्य की तलाश
- शिव-तत्व
- शिवोहं
- श्वेत हंस
- स्मृतियाँ
- स्वयं को जानो
- हिमालय के सान्निध्य में
- होली (अनुजीत ’इकबाल’)
यात्रा वृत्तांत
सामाजिक आलेख
पुस्तक समीक्षा
लघुकथा
दोहे
विडियो
उपलब्ध नहीं
ऑडियो
उपलब्ध नहीं