आज़ादी (अनुजीत ’इकबाल’)
कथा साहित्य | लघुकथा अनुजीत 'इकबाल’1 Feb 2020 (अंक: 149, प्रथम, 2020 में प्रकाशित)
घाटी में सन्नाटा पसरा हुआ था, आबादी से दूर पुरशोर नाले के पास केवल एक ही घर था, सकीना का। रात के क़रीब एक बजे दरवाज़े पर दस्तक हुई और सकीना हड़बड़ा कर उठी और खिड़की से बाहर झाँका। उसके चेहरे पर चमक आ गई और उसने जल्दी-जल्दी दरवाज़ा खोला। सामने, मुस्तफ़ा खड़ा था, उसका पति। जेहादियों से मिल जाने के बाद मुस्तफ़ा ने घर छोड़ दिया था, लगभग दो साल पहले। उसके बाद से यह इन दोनों की तीसरी मुलाक़ात थी।
“बड़ी मुश्किल से आया हूँ, सकीना। फौज का सख़्त पहरा लगा हुआ है,“ अंदर आते ही वह बोला।
“अल्लाह का शुक्र है तुम आ तो गए,“ नम आँखों से मुस्कुराते हुए सकीना बोली।
“तुम को देखने के लिए तरस गया था,“ उदास आँखों से सकीना की तरफ़ देखते हुए मुस्तफ़ा बोला।
लगभग आधे घंटे बाद, खाना खाने से फ़ारिग हो कर दोनों सोफ़े पर बैठे हुए बातों में मशग़ूल थे।
“कैसा चल रहा जिहाद?” सकीना ने पूछा।
“अल्लाह का फ़ज़ल है। आज़ादी मिल के रहेगी। वैसे, 26 जनवरी आ रही है अगले हफ़्ते, कुछ पटाखे और फुलझड़ियाँ सँभाल कर रखे हैं हिंदुस्तानियों के जलसे में चलाने के लिए,“ हँसता हुआ मुस्तफ़ा बोला।
“लेकिन, हम भी तो हिंदुस्तानी हैं….”
सकीना को बीच में टोक कर मुस्तफ़ा बोला, “सकीना, अब फिर से वो सब न शुरू कर देना। जानता हूँ, तुम फौजी की बेटी हो और हिंदुस्तान को अपना वतन मानती हो लेकिन हम जेहादियों का रास्ता और मंज़िल अलग है।“
“मुस्तफ़ा, तुम आराम कर लो।“
सोफ़े पर ही मुस्तफ़ा उसकी गोद में सिर रख कर लेट गया।
सकीना की आँखों में आँसू थे फिर अचानक वह ज़ोर से बोली, ”भाई जान, अंदर आ जाइए, दरवाज़ा खुला है।“
मुस्तफ़ा घबराकर खड़ा हो गया और देखा कि दरवाज़े पर भारतीय सेना का मेजर विक्रांत सहगल अपनी टीम के साथ खड़ा था।
ग़ुस्से से मुस्तफ़ा ने सकीना की तरफ देखा और चिल्लाया, ”धोखा!“
“मादर-ए-वतन के लिए जान भी हाज़िर है, फिर तुम तो राह भटक चुके हो। जाओ, तुमको सेना के हवाले करती हूँ। अब, तुम महफूज़ हो… अपने लोगों के बीच। अल्लाह के फ़ज़ल से तुमको आज़ादी मिल गई।“
सकीना के चेहरे का जलाल दहकती आग के सदृश था।
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