अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता सजल

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा यात्रा वृत्तांत डायरी बच्चों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

रेखाचित्र पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

श्राद्ध

आज सुबह से ही घर में ज़ोर शोर से तैयारियाँ चल रहीं थीं . . . ख़ूब पकवान बनाए जा रहे थे। चाची, ताई, बुआ सब घर में इकट्ठी थीं। सारे घर में चहल-पहल नज़र आ रही थी। 

दरअसल आज दादी का श्राद्ध था। हर चीज़ बड़े क़रीने से बनाई जा रही थी। बड़े साफ़-सुथरे तरीक़े से रसोई में हर कार्य हो रहा था। पिता जी पंडित जी को फोन लगा रहे थे कि वह समय से ही घर पर आ जाएँ जिससे श्राद्ध का की पूजा समय पर हो सके। खाने की वो एक-एक चीज़ याद करके बनवाई और बाज़ार से मँगवाई जा रही थी, जो दादी को पसंद थी। 

जब मुझसे रहा नहीं गया तो मैं पूछ ही बैठा कि पापा दादी तो इस दुनिया में अब नहीं है तो अब उनके पसंद की चीज़ें क्यों मँगवाई जा रही हैं? उनको जो उनको खाने में पसंद था, वह क्यों बनाया जा रहा है? 

पापा बोले, “बेटा श्राद्ध के समय जो जो पंडित जी को खिलाया जाता है या दान दिया जाता है, वह हमारे पितरों तक, हमारे बुज़ुर्गों तक ज़रूर पहुँचता है। 

“तो इसलिए जो दादी को पसंद था खाने में वह सब बनाया जा रहा है ताकि दादी को ऊपर जाकर वह सब मिल सके।” 

पापा के मुँह से यह सब सुनकर मुझे बहुत आश्चर्य हुआ कि यह क्या बात हुई; दादी इस दुनिया में नहीं है तो भला वह यह सब चीज़ें कैसे खा सकती है? और पंडित जी को यह सब खिलाने से वह दादी तक कैसे पहुँच सकता है? 

मैंने जिज्ञासावश पूछ ही लिया कि पापा यह कैसे सम्भव है? दादी तो इस दुनिया में नहीं है तो वह यह सब कैसे खा सकती है? तब पापा ने बताया कि बेटा हमारे धार्मिक रीति-रिवाज़ों के अनुसार जब हम अपने किसी मृत पूर्वज का श्राद्ध करते हैं तो पंडित जी को दिया हुआ दान, खाना-पीना वह सब हमारे पूर्वजों तक पहुँच जाता है। 

मैं यह सब सुनकर चुप हो गया। पर मुझे वह सब बातें एक-एक करके याद आने लगीं जब दादी ज़िन्दा थी। दादी हर चीज़ नहीं खा पाती थी क्योंकि उनके दाढ़-दाँत नहीं थे। लेकिन कुछ चीज़ें ऐसी थीं जो वह खा सकती थीं और उनका मन भी होता था उसे खाने का। उनको कई बार मैंने बोलते भी सुना माँ से और पापा से कि उनका वह चीज़ खाने का मन है; लेकिन अक़्सर माँ और पापा उनकी तबीयत का बहाना बनाकर टाल देते थे और कहते थे कि माँ इस उम्र में तुम्हें ये सब कहाँ हज़म होगा, तुम्हारे लिए तो हल्का-फुल्का, सादा खाना ही ठीक है और दादी बेचारी मन मार कर रह जाती थी। जो उन्हें मिलता था, वह चुपचाप खा लेती थी। मुझे याद है कभी-कभी मेरे और दीदी के पास कोई खाने की चीज़ होती थी तो उसे देखकर दादी का मन होता था तो वह कई बार हम से माँग लिया करती थीं। वह भी बड़े डरते डरते और सहमते हुए, चुपचाप से कि माँ-पापा देख ना लें और हम दादी को दे दिया करते थे। और वह उसे खा कर ख़ुश हो जातीं थीं। 

जीते-जी दादी को हमने छोटी-छोटी चीज़ों के लिए तरसते देखा था और अपना मन मारते हुए देखा था। लेकिन आज मरने के बाद उनके नाम पर तरह-तरह के पकवान बनाए जा रहे हैं। उनकी पसंद-नापसंद का ख़्याल रखा जा रहा है जबकि वह इस दुनिया में है ही नहीं उसको खाने के लिए। 

मन ही मन मुझे अपनी खोखली परंपराओं और अंधविश्वासों पर बहुत दुख हो रहा था कि हमारे समाज में आज भी इंसान की सोच ऐसी है कि वह अपने जीवित माता-पिता की परवाह नहीं करते और मरने के बाद उनके लिए श्राद्ध करते हैं और तरह-तरह के पकवान बनाते हैं यह सोच कर कि वो उन तक पहुँच जाएगा। 

क्या यह रीति-रिवाज़ और कर्मकांड मानवीय संवेदनाओं से भी बढ़कर हैं? 

आख़िर कब मुक्त हो पाएँगे हम इन खोखली परंपराओं और कर्मकांड की बेड़ियों से? 

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

......गिलहरी
|

सारे बच्चों से आगे न दौड़ो तो आँखों के सामने…

...और सत्संग चलता रहा
|

"संत सतगुरु इस धरती पर भगवान हैं। वे…

 जिज्ञासा
|

सुबह-सुबह अख़बार खोलते ही निधन वाले कालम…

 बेशर्म
|

थियेटर से बाहर निकलते ही, पूर्णिमा की नज़र…

टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

कविता

कहानी

विडियो

उपलब्ध नहीं

ऑडियो

उपलब्ध नहीं