संस्कारों की जकड़न
काव्य साहित्य | कविता दीपमाला15 Nov 2025 (अंक: 288, द्वितीय, 2025 में प्रकाशित)
बहुत बुरी है संस्कारों की जकड़न भी,
इंसान कहीं का नहीं रहता है इसकी वजह से।
बात चाहे ग़लत को सहन करने की हो,
चाहे अन्याय का विरोध करने की,
यह कमबख़्त संस्कार जाने अनजाने ही
बेड़ियाँ डाल देते हैं हमारी ज़ुबान पर।
ये जानते हुए भी कि हम सही हैं
और सामने वाला सरासर ग़लत,
नहीं रख पाते अपनी बात उस तरह से कि
कहीं चुभ ना जाए किसी को,
आहत ना हो जाए उसका मन।
ग़लत को ग़लत और सही को सही कहने का
हौसला ना जाने कहाँ खो जाता है।
यह जानते हुए भी कि
कोई नहीं सोच रहा हमारे बारे में,
फिर भी फ़िक्र करते हैं उसकी।
ये संस्कार ही तो हैं।
जब भी बारी आती है
अपने जीवन के बारे में निर्णय लेने की,
हमेशा बाधक बनते हैं संस्कार,
अपने बारे में सही निर्णय लेने में।
क्योंकि हम उस वक़्त भी
दूसरों के हित के बारे में सोच रहे होते हैं।
आख़िर क्यों नहीं तोड़ पाते
संस्कारों की इन बेड़ियाँ को हम?
और सिर्फ़ हम ही नहीं
हमारी आने वाली पीढ़ियों को भी
दे देते हैं हम वही संस्कार।
जिससे वो वक़्त के साथ ख़ुद को
उतना नहीं बदल पातीं . . . . . .
जितना बदलने की ज़रूरत है।
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