स्त्री का ख़ालीपन
काव्य साहित्य | कविता दीपमाला15 May 2024 (अंक: 253, द्वितीय, 2024 में प्रकाशित)
ख़ालीपन यह मेरा हमेशा
भरता ही रहा है तुम्हारे घर को
फिर भी हमेशा पूछते हो
कि तुम करती ही क्या हो सारा दिन?
इस ख़ालीपन से ही बसा है
तुम्हारा घर संसार,
इसे ही फलता-फूलता है ये परिवार
फिर भी हमेशा पूछते हो
कि तुम करती क्या हो सारा दिन?
स्त्रियों के ख़ालीपन से ही
होते हैं घर के सारे काम
दूर हो जाती है मर्दों की चिंता तमाम
फिर भी हमेशा पूछते हो
कि तुम करती क्या हो सारा दिन?
घर को सलीक़े से सजाना
रसोई और घर का बजट बनाना
स्त्रियों के ख़ालीपन से ही
होता है सब मुमकिन
फिर भी अक्सर पूछते हो
कि तुम करती क्या हो सारा दिन?
अचार, मुरब्बे, चटनी, पापड़
तृप्त होता मन जिनको खाकर
वो भी इक स्त्री के ख़ालीपन से ही है सम्भव
फिर भी अक्सर पूछते हो
कि तुम करती क्या हो सारा दिन?
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