सर्दियों की धूप
काव्य साहित्य | कविता दीपमाला1 Jan 2024 (अंक: 244, प्रथम, 2024 में प्रकाशित)
सर्दियों की एक बहुत सर्द सुबह
जब बैठा हुआ हूँ मैं अपने घर के अहाते में
ठिठुरन सी हो रही है तन-मन दोनों में
मानो शीत व्याप्त हैं सारे
यकायक सामने वाले घर को देखता हूँ
नज़र आता है वह खुला आँगन
और उसमें चारों ओर फैली धूप
मुस्कुरा रहे हैं उसके स्पर्श से पेड़ पौधे
मन में मानो एक टीस सी उठती है,
काश मैं भी उस उष्णता को महसूस कर पाता।
काश मेरा भी आँगन ऐसे खुला होता
सर्द दिनों में गुनगुनी धूप का आनंद ले पाता।
अब तो बस धूप एक झलक सी दिखाती है
सर्द सुबह में मन को ललचा भर जाती है।
हम सबमें बस गया है बाज़ार,
मकान की अट्टालिकाएँ बन गई हैं।
उनमें से ज़रा सा झाँक जाती है
धूप कभी-कभी
मानो आँख मिचोली खेल रही हो।
याद आता है गाँव का वह घर आँगन
बचपन बीता था जहाँ धूप में बतियाते
गन्ना चूसते और मूँगफली चटकाते।
अब सपना है वह गुनगुनी सर्द सुबह
बस स्मृतियों में ही
आनंद लिया जा सकता है उसका।
तभी धूप दो पल को ज़रा झाँकती हुई आई
लगा मानो तन-मन में गुनगुनाहट भर आई।
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