माँ मैं तुमसी लगने लगी
काव्य साहित्य | कविता दीपमाला15 Sep 2024 (अंक: 261, द्वितीय, 2024 में प्रकाशित)
पता नहीं मैं कब तुमसी लगने लगी माँ?
पता नहीं मैं कब तुमसी लगने लगी?
झुँझला उठती थी मैं जब
तुमको देखती हड़बड़ी में,
रसोई और घर का काम करते
यूँ ही उलझे और बेतरतीब बालों से
साड़ी को ऊँचा उठा देखकर
ना कोई साज़ सँवार और शृंगार
बस हर वक़्त इधर से उधर
फिरकी बनकर घूमते रहना।
सोचती थी क्यों नहीं रहती हो तुम
सलीक़े से सज धज कर?
नहीं बैठती हो दो घड़ी हमारे साथ
फ़ुर्सत से कुछ बतियाने या चाय पीने।
पर जब स्वयं को इस मोड़ पर पाया
तो समझ आई तुम्हारी पीड़ा।
और अब मैं भी तुमसी लगने लगी हूँ
बिलकुल तुम जैसी लगने लगी हूँ।
सुबह नहाते ही रसोई में दौड़ती
सबकी फ़रमाइशें पूरी करते-करते
जाने कब गुज़र जाता है वक़्त
परिवार को पोर-पोर धारण करने में
ना जाने कब मैं तुमसी लगने लगी हूँ।
कब से ना जाने अपनी पसंद की
कुछ बनी-सजी नहीं मैं
साड़ी, बिंदी, चूड़ी, साग-सब्ज़ी
अरसा हो गया इनमें अपनी पसंद को देखे
सबकी पसंद का बनाते-बनाते
ना जाने कब मैं तुमसी लगने लगी हूँ।
परिवार की ख़ुशियों में स्वयं के
अस्तित्व को ढूँढ़ती हर इक औरत
पता नहीं कब अपनी माँ की
परछाईं बन जाती है, पता ही नहीं चलता।
वक़्त के पहिए में घूमकर मैं भी
ना जाने कब तुमसी लगने लगी हूँ।
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