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चिट्ठियाँ 

कैसा हो गया है इंसान
लेटर बॉक्स की उन चिट्ठियों की तरह, 
जो साथ होकर भी साथ नहीं हैं। 
किसी को किसी से कोई मतलब नहीं। 
बिल्कुल तटस्थ पड़ी रहती हैं
बिना एक दूसरे का हालचाल पूछे, 
बिना एक दूसरे से बात किए
बस अपने में ही गुम है सब। 
 
एक साथ होते हुए भी
सबकी मंज़िलें अलग-अलग हैं
कोई नहीं जानता
कि कौन कहाँ जाएगा? 
 
ऐसे ही हो गए हैं हम भी आज
लेटर बॉक्स में पड़ी चिट्ठियों की तरह। 
परिवार और समाज में रहते हुए भी
एकदम तटस्थ, बेपरवाह
एक दूसरे के दुख सुख से अनजान
सिर्फ़ अपने आप में उलझे
मानवता से कोसों दूर। 
 
लेकिन उन चिट्ठियों का दूसरा पहलू भी तो है। 
जब खोल कर पढ़ी जाती हैं वो चिट्ठियाँ, 
बाँट लेती हैं सुख-दुख और भावनाएँ एक दूसरे की। 
समा लेती हैं अपने में अनेकों एहसास और जज़्बात। 
जोड़ती हैं इंसान को इंसान से
और पल में मिटा देती है दूरियाँ दिलों की। 
 
काश मानवीय संवेदनाएँ फिर से जाग जाएँ। 
मानवता जीवंत हो जाए और मिट जाएँ दूरियाँ दिलों की, 
चिट्ठी के उस दूसरे पहलू की तरह
फिर से मानव मानव से जुड़ जाए और मिटा दे दिलों के फ़ासले। 

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