काश होता इक कोपभवन
काव्य साहित्य | कविता दीपमाला15 Jun 2025 (अंक: 279, द्वितीय, 2025 में प्रकाशित)
रानी कैकई के पास तो था एक निजी कोपभवन
अपना कोप जताने के लिए
पर क्या आम स्त्री के पास है कोई कोपभवन
या है कोई निजी कोना जहाँ बैठकर
वो ग़ुस्सा दिखा सके अपना
वो तो बस निकलती है अपना क्षोभ
अपनी रसोई में ही खाना पकाते पकाते॥
तेज़-तेज़ कलछी चलाकर
रोटियाँ तेज़ी से बेलकर,
आटा पटककर-पटककर गूँधते हुए।
या भाजी तरकारी तेज़ी से छील-काटकर
बरतन में डालते हुए।
आँगन में साफ़ कपड़ों को भी
घिस-घिसकर उनकी मैल उतरते हुए
या रसोई के बरतनों को बिना बात
रगड़कर चमकाते हुए।
या निकलती है ग़ुस्सा अपना . . .
अपने ही बच्चे को बेवजह पीटते हुए।
जबकि आत्मा चीत्कार करती है उसकी
फिर भी अपने ही अंश को करती है आहत,
वास्तव में ख़ुद को करती है छलनी भीतर से।
काश आम स्त्री के पास भी होता
इक निजी कोपभवन अपना
रानी कैकई के जैसा,
एक कोना एकांत से भरा . . .जहाँ निकाल पाती
अपने हृदय की सारी कड़वाहट, सारा ग़ुस्सा
और कर लेती मन हल्का अपना।
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